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________________ १६९ ર્જાના હોતા હૈ ઐસે સ્વપર દંતાની માત્માળો સત્તુહી સમક્ષ लिजिये जो अपने झूठे स्वार्थमें अंध हो दूसरे कॉभी उलटे रस्ते चढा हैं वै पथ्थरकी नाव जैसे कुगुरु स्वपरकों डुवाने वाले हैं, विषयांध वनकर केवल वेष विडंबक पापात्माओंका नरक विगर दूसरा मार्ग नहीं है. स्वश्रेय साधन करनेकी इच्छा वाले सुगुणी श्रावकोंको वैसे पापी गुरुका सँग सर्वथा छोड देना. अहा ! वडेही खेद की वार्ता है कि कितनेक मुग्धभाइ भगिनीयें जैसे बहुत नीच हलके कृत्य करने हारों का भी संग किये करते हैं, पवित्र शास्त्र तो फरमाते है कि-' काले सांपका संग करना अच्छा; मगर कुगुरुका संग करना अच्छा नहीं. क्योंकि काला सांप काटे तो कभी एक बेर मृत्यु होवै; मगर कुगुरूसें तो अनाचार सेवन कर या पोषनकर अनंत भवभ्रमण करना पडता है यानि बेसुमार वख्त मरनके शरन होना पडना है; वास्ते आत्मार्थी सज्जनोंकों तो हमेशां स्वपर हितकांक्षी सद्गुरुओं का ही संग करना. कदापि मरणांत कष्ट आ पढे तोभी कुगुरुओंका संग नहीं करना. शुद्ध देव गुरु धर्म इन्होंकी पूर्ण पहिचान कर अत्यंत भक्ति भावसे उन्हीकाही सेवन करना, पवित्र शास्त्रकारोंने कहा है कि'धर्मार्थी जनों को धर्मकी परीक्षा सुने या रत्नकी तरह करनी. ' परीक्षा पूर्वक ग्रहण की हुइ श्रेष्ठ वस्तुका श्रद्धासह सेवन करनेसे उनका फल मिल सकता है; और परीक्षा विगर उपरके आडंबरसेंही ग्रहण की हुइ झूटी वस्तुसे मात्र क्लेशकेही हिस्सेदार होनो
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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