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________________ 3 IL निग्रह करने लगे. कषाय तापकों दूर करनेके लिये श्री सर्वज्ञ भादति उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, और संतोषका सेवन करने लगे. मदिरादिक दृष्ट व्यसनोंका बिल्कुल त्याग करनेमें कटिवद्ध हो रहे. विषय रसकों विपवत् गिनने लगे. निद्राकों वैरिणी मानने लगे. और स्त्री विकथादिकों हालाहल -झहर समान निंदने लगे. स्वल्पमै प्रमाद भात्रोंकों कट्टे दुश्मन जैसे मानकर उनसे विराम पाए. समस्व जीवोंको आत्म साहश गिनकर उन्होंका संरक्षण करने के वास्ते तत्पर हुवे. किसी जीवकों क्लेश न हो वैसा हित मित भाषन करने लगे, परद्रव्य और परदारा तर्फ जालांजली देने लगे-यानि पराये धन-द्रव्यकों धूल के ढेले या लीष्टवत् निर्माल्य गिनने लगे और पराइ स्त्रीको काली नागन समान जानकर उनसे दूर रहने लगे. श्री सर्वज्ञ प्रभुजी की आज्ञाकों शेषावत् मस्तकपर धारन करने लगे. अर्थको अनर्थ मूल जानकर उनका सप्तक्षेत्रादिमैं यथा अवसर विवेक से व्यय करने खर्चने लगे. दीन दुखीजनों की भीर भांगनेकों तत्पर हुवे, सीदाते - दुःखपाते हुवे साधर्मी भाइयोंकों भक्तिमरसे उद्धरनेके लिये तन मन धनका सदुपयोग आदरने लगे. अपने साधनोंकी उन्नति होनेमै अपनी ही उन्नति मानने लगे. अपने साघमभाइयोंकी न्यूनता सहन न हो सकनेसें उनकों अपने बरोबर करने के लिये वन सकै उतनी कोशीश करने लगे. स्वधर्मी भाइयोंकी आधिक्यता देखकर अंतःकरणसे खुशीभी होने लगे. राग द्वेषका विवेकसे विजय करनेकों, श्री वितराग देवकी साक्षात् शान्त रस
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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