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व वाह-क्षेत्र-प्रकाश
नही चलाई गई, बल्कि सत्यका बुरी तरहसे गला घोटा गया है, पुस्तकके उद्देश्यपर एकदम पानी फेर दिया है, उसे समालोचनामे दिखलाया तक भी नहीं, उसका अपलाप करके अथवा उसको बदल कर अपने ही कल्पित रूपमे उसे पाठकोके सामने रक्खा गया है और इस तरह समालोचकके कर्तव्योसे गिरकर, बडी धृष्टताके साथ समालोचनाका रग जमाया गया है । अथवा यो कहिये कि भोले भाइयोको फंसाने और उन्हे पथभ्रष्ट करनेके लिये खासा जाल बिछाया गया है। यह सब देखकर, समालोचकजीकी बुद्धि और परिणतिपर बडी ही दया आती है। आपने पुस्तक-लेखकके परिणामोका फोटू खीचनेके लिये समालोचनाके पृष्ठ ३६-४० पर, "जो रूढियोके इतने भक्त है" इत्यादि रूपसे कुछ वाक्योको भी उद्धृत किया है, परन्तु वे वाक्य आगे-पीछेके सम्बन्धको छोडकर ऐसे खण्डरूपमें उद्धृत किये गये हैं जिनसे उनका असली मतलब प्राय गुम हो जाता है और वे एक असम्बद्ध प्रलाप-सा जान पड़ते हैं। यदि समालोचकजीने प्रत्येक लेखके अन्तमे दिये हुए उदाहरणके विवेचन अथवा उसके शिक्षा-भागको ज्यो-का-त्यो उद्धृत किया होता तो वे अपने पाठकोको पुस्तकके आशय तथा उद्देश्यका अच्छा ज्ञान कराते हुए उन्हे लेखकके तज्जन्य विचारोका भी कितना ही परिचय करा सकते थे, परन्तु जान पडता है उन्हे वैसा करना इष्ट नही था, वैसा करनेपर समालोचनाका सारा रग ही फीका पड जाता अथवा उन अधिकाश कल्पित वातोकी सारी कलई ही खुल जाती, जिन्हे प्रकृत पुस्तकके आधारपर लेखकके विचारो या उद्देश्योके रूपमे नामाकित किया गया है। इसीसे उक्त विवेचन अथवा शिक्षा-भागपर, जो आधी पुस्तकके बराबर होते हुए भी सारी