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चार अतिशयों से गर्भित महावीर-स्तुति
प्रथम प्रकाश श्लोक २ ने अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा यह जान लिया कि यह तो प्रभु के आत्मबल के अतिशय की अभिव्यक्ति है। इससे इन्द्र ने प्रभावित होकर उसी समय भगवान वर्द्धमान को महावीर पद से विभूषित किया। महावीर नाम प्राप्र होने के अन्य कारण :___ अनंत-अनंत जन्मों के स्निग्ध एवं गांठ के रूप में बंधे हुए कर्मों को जड़मूल से उखाड़ने का अपार सामर्थ्य और | पुरुषार्थ करना भी महावीरपद को सार्थक करने का एक कारण है। उनके माता-पिता ने उनका नाम वर्द्धमान रखा था। अन्य लोगों ने 'श्रमण' और 'देवार्य' नाम से भी उन्हें संबोधित किया।
इस प्रकार यहाँ महावीर को नमन करने का प्रयोजन बताया गया है।
दुर्वाररागादि-वैरिवार निवारिणे, अर्हते, योगिनाथाय, तायिने-ये चारों विशेषण तीर्थंकर महावीर के सुप्रसिद्ध चार अतिशयों को प्रकट करते हैं। वे चार अतिशय इस प्रकार हैं-१. अपायापगमातिशय, २. पूजातिशय, ३. ज्ञानातिशय
और ४. वचनातिशय। अपाय कहते हैं-विघ्न को, अंतराय को। राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि वीतरागता की साधना में अंतराय है। इन अंतरायों के रूप में रागादि-शत्रुओं को दूर करने से भगवान् में आत्म स्वरूप अपायापगमातिशय के रूप में प्रकट होता है। इस कारण भगवान् महावीर का प्रथम 'दुर्वाररागादि-वैरिवार-निवारिणे' विशेषण सार्थक है।
• रागद्वेषादि शत्रुओं का क्षय कर प्रभु ने अरिहंत पद प्राप्त किया; इसी कारण वे समस्त देवों, असुरों और मानवों के पूजनीय (अर्हत्) बने। अतः द्वितीय 'अर्हते' विशेषण से भगवान् का पूजातिशय परिलक्षित होता है।
निर्मल केवलज्ञान के सामर्थ्य से लोकालोक के स्वभाव एवं प्राणिमात्र के हितों के योग के पूर्ण ज्ञाता होने से | भगवान् अवधिज्ञान आदि योगियों के नाथ सिद्ध होते हैं। अतः 'योगिनाथाय' विशेषण उनके ज्ञानातिशय को प्रकट करता है।
भगवान् जगत् के समस्त जीवों की रक्षा के लिए अपना अमृतमय प्रवचन देते हैं और इससे विश्व के सभी प्राणियों को अभयदान मिल जाता है; इस रूप में भगवान् का वचनातिशय प्रतीत होता है। अतः उनका चौथा तायिने (त्राता) विशेषण भी सार्थक है। तीर्थंकर महावीर के प्रवचन को सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते है। यही कारण है कि अपने सर्वजीव-स्पर्शी प्रवचन (धर्मोपदेश) द्वारा भगवान् जगत के जीवों को जन्म, जरा, मृत्यु आदि से बचने का उपाय बताकर वस्तुतः उनकी आत्मरक्षा करते हैं। अतः वे सारे विश्व के वास्तविक त्राता, पालक और रक्षक है। अपने बच्चों का पालन और रक्षण तो सिंह, व्याघ्र आदि भी करते हैं, परंतु वह पालन मोहगर्भित होता है, भगवान् के द्वारा सर्व जीवों का पालन-रक्षण मोह रहित, निःस्वार्थभाव से होता है।
इस प्रकार चारों अतिशयों से युक्त बताकर भगवान् महावीर की परमार्थ-स्तुति की है।।१।। अब भगवान् महावीर की योग-गर्भित स्तुति करते हैं।२। पन्नगे च सुरेन्द्रे च, कौशिके पादसंस्पृशि । निर्विशेषमनस्काय, श्रीवीरस्वामिने नमः ॥२॥ अर्थ :- भक्तिभाव से चरण स्पर्श करने वाले सुरेन्द्र (कौशिक) और दंश देने (डसने) की बुद्धि से चरण स्पर्श
करने वाले कौशिकसर्प, दोनों पर समान मन (समभाव) रखने वाले श्री महावीर स्वामी को मेरा नमस्कार
हो! ।।२।। व्याख्या :- चण्डकौशिक का पूर्वजन्म में कौशिक नाम था। उसे भगवान् महावीर ने बोध देने के समय कहा था'चण्डकौशिक बोध प्राप्त कर, जाग्रत हो।' इन्द्र का दूसरा नाम भी कौशिक है। कौशिक सर्प ने डसने की दृष्टि से भगवान के चरणों का स्पर्श किया था और कौशिक इन्द्र ने भक्तिभाव से प्रेरित होकर चरण स्पर्श किया था। भगवान् का न तो चंडकौशिक सर्प के प्रति द्वेष था और न इन्द्र के प्रति राग; दोनों के प्रति भगवान् राग-द्वेष रहित एवं समभावी 1. अन्यान्य ग्रंथों में प्रभु के १७ नाम बताये हैं। १. ज्ञातकुलोत्पन्न, २. विदेह, ३. विदेहदत्त, ४. विदेहजात्य, ५. विदेह सुकुमाल, ६. सन्मति, ७. महतीवीर, ८. महावीर, ६. अन्त्य काश्यप, १०. वीर, ११. देवार्य, १२. ज्ञातान्वय, १३. ज्ञातानंदन, १४. नातपूत्र, १५. वर्धमान, १६. नायपुत्त, १७. चरम तीर्थंकर