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पर उपसर्ग करता है। उपसर्ग के दूर होने पर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है और अन्तिम बारहवीं - सन्धि के कुछ ही कडवकों में पूर्व-भवावली का वर्णन किया गया है।
बुध श्रीधर द्वारा कथा के इस रूप परिवर्तन से वस्तु - विन्यास में कार्य-कारण संबंध घटित हो गया है, जिससे कथावस्तु में विश्वसनीयता, उत्कण्ठा, संघर्ष और भविष्य संकेत यथास्थान उत्पन्न होते चले गए हैं। इस परिवर्तन से जहाँ कथानक - नियोजन में सफलता प्राप्त हुई, वहीं इस चरित को काव्य का स्वरूप भी प्राप्त हो गया है। प्रबन्धकाव्य या महाकाव्य के कवि के लिए एक अनिवार्य शर्त यह है कि वह कथासूत्र का न्यास इस रूप में करे, जिससे कि रसज्ञ व्यक्ति मूलकथानक का आस्वादन करता हुआ चरमोत्कर्ष की ओर आकृष्ट हो सके। आलंकारिकों ने इसी कौशल का नाम प्रबन्ध वक्रता बतलाया है। आचार्य कुन्तक ने अपने क्रोक्ति - जीवित" में लिखा है' —
"कथाविच्छेद- वैचित्रय से प्रबन्ध में एक ऐसी सुन्दरता आ जाती है, जो पूर्वोत्तर कथा - निर्वाह के द्वारा कदापि नहीं आ सकती । अतः कुशल कलाकार प्रबन्ध सौन्दर्य के निर्वाह के निमित्त चरित नायक के व्यक्तित्व को आरम्भ ही प्रस्तुत कर देता है और अनुषांगिक- कथासूत्रों का नियोजन उस शैली में करता है, जिस में सारा प्रबन्ध एकरस होकर चमत्कार का उत्पादक बन सके ।"
उक्त कथन से स्पष्ट है कि बुध श्रीधर ने परम्परा प्राप्त कथा के दो टुकड़े कर प्रथम में उस टुकड़े का सन्निवेश किया है, जो मूलकथा का अंग है। इसी प्रकार से इसी को अंगी भी कहा जा सकता है क्योंकि भवावलि की कथा तो इस मूल कथा का एक अंगमात्र है ।
प्रबन्ध-नियोजन एवं निर्वाह
प्रबन्ध के चार प्रधान अवयव होते हैं— 1. इतिवृत्त, 2. वस्तु व्यापार-वर्णन, 3. संवादतत्त्व, एवं 4. भाव-व्यंजना ।
प्रबन्ध-निर्वाह में क्रमबद्धता का रहना तो अनिवार्य है ही, पर कथा के मर्मस्थलों की पहिचान भी आवश्यक है। जो कवि मर्मस्थलों की परख रखता है, उसे ही प्रबन्ध के सृजन में सफलता प्राप्त होती है। बुध श्रीधर ने प्रस्तुत चरित-काव्य के प्रबन्ध में चार ऐसे मर्मस्थलों का नियोजन किया है, जिनके कारण इसके प्रबन्ध-गठन में उसे अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। हम यहाँ उनके उक्त मर्मस्थलों का उद्घाटन प्रस्तुत प्रसंग में आवश्यक समझते हैं।
कुछ मार्मिक स्थल
(1) प्रस्तुत चरित-काव्य का प्रथम मर्मस्थल वह है, जब कुमार पार्श्व युवावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। तब वे शौर्य, वीर्य आदि गुणों के साथ ज्ञान-विज्ञान की विविध कलाओं एवं विविध नीतियों में पारंगत हो जाते हैं। उनका क्षत्रियोचित वीर-तेज सर्वत्र अपनी आभा से दिशाओं को प्रोद्भाषित कर देता है। इसी काल में उनके मामा रविकीर्ति का दूत महाराज हयसेन की राजसभा में आता है और निवेदन करता है कि रविकीर्ति के पिता शक्रवर्मा के दीक्षित हो जाने के उपरान्त रविकीर्ति को कमजोर पाकर उनके प्रतिवेषी यवनराज ने उनकी कन्या राजकुमारी प्रभावती का हाथ माँगा है और साथ ही यह भी कहा है कि यदि प्रभावती उसे समर्पित न की जायेगी तो वह समस्त राज्य को धूलिसात् कर देगा। रविकीर्ति के दूत द्वारा यह सन्देश सुनकर महाराज हयसेन अत्यन्त क्रुद्ध हो उठते हैं और स्वयं ही युद्ध में जाने के लिए अपनी सेना को तैयार होने का आदेश देते हैं। चारों ओर रणध्वनि सुनाई पड़ने लगती है । वीरों की हुंकारें मूर्तिमान् रौद्ररस के रूप में उपस्थित होने लगती हैं ।
1. प्रधानवस्तु सम्बन्धा तिरोधान विधायिना । कार्यान्तरान्तरायेण विच्छिन्न विरसा कथा ।
तत्रैव तस्य निष्पत्तेर्निनिबन्धरसोज्ज्वलाम् । प्रबन्धस्यानुवध्नाति नवां कामपि वक्रताम् ।। - ( वक्रोक्ति जीवित 4/20-21 )
2.
पासणाह. 3/1-8
3. पासणाह. 3/11-12
प्रस्तावना : 47