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सय तिणि रिंदहँ जाय मुणिंदहँ जिण समए । । णिक्खवण-पहावण सिवसुह-पावण णह गमणे ।। जो उस विमाण करिवि समाणए सइ - रमणो ।। परिहार सुसंजमु उववासद्वय गहिवि जिणो ।। गइ पारण वारंणो तव - वित्थारणे तिजय-इणो । । गयउर वरदत्तें वियसिय वत्तें रइरहिउ ।। ठाठाहु भणेविणु सिरिपणवेविणु पडिगहिउ ।। अंचे विणु चरणइँ भवभयहरणइँ जियसरहो ।। दिण्णउ वरभोयणु सुहसंजोयणु जिणवरहो । । गंधोवय-वरिस जणवय-हरिसणु महिमहिउ ।। सुरसाहुक्कारउ तिहुअणसारउ गुण-सहिउ ।। दुंदुहि रउ सुंदरु बहिरियकंदरु मणिक्डणी ।। कुसुमरयविमीसिउ पवणु पसंसिउ सुहघडणो ।। एयहिँ अच्चरियइँ हय दुच्चरियइँ सुंदर ।।
तक्ख हि जिणु जिमियउ जहिँ मंदिरए । ।
घत्ता— अक्खयदाणु भणेविणु पाउ हणेविणु पासणाहु गुणभरियउ । विहरइ जणु बोहंतउ रइ रोहंतउ णाणा रिसि परिवरियउ ।। 108 ।।
पार्श्व के दीक्षा-काल में 300 अन्य राजा भी मुनीन्द्र बन गये। इस प्रकार पावन शिव-सुख को प्राप्त कराने वाली महाभिनिष्क्रमण-प्रभावना करके तथा नवदीक्षित उन राजाओं का सम्मान करके वह इन्द्र अपनी इन्द्राणी के साथ विमान में बैठकर नभ मार्ग से वापिस लौट गया ।
तीनों लोकों के लिये सूर्य के समान उन पार्श्व मुनीन्द्र ने अपने तप - विस्तार के लिये परिहार- विशुद्धि संयम धारण कर अष्टमोपवास (तेला) व्रत ग्रहण किया और पारणा के निमित्त गजपुर ( हस्तिनापुर ) पहुंचे।
वहाँ के राजा वरदत्त ने प्रसन्न मुद्रा पूर्वक रतिजयी उन पार्श्व का अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ कहकर सिर नवाकर, उन्हें पडगाहा और कामदेव को पराजित करने वाले, भव भय का हरण करने वाले उनके चरणों की पूजाकर उन जिनेन्द्र के लिये शुभ संयोजक प्राशुक उत्तम आहार दान दिया ।
उन मुनीन्द्र ने जिस भवन में आहार ग्रहण किया, उसी समय वहां पांच प्रकार के दुश्चरितों को नष्ट करने वाले आश्चर्य हुए (1) पृथिवीतल पर महान् तथा जनपद को हर्षित करने वाली गन्धोदक वृष्टि, ( 2 ) त्रिभुवन में सारभूत, गुण-समृद्ध देवों द्वारा साधुकार (जय-जयकार ), ( 3 ) पर्वत- कन्दराओं को भी बधिर कर देने वाले सुन्दर दुन्दुभि-वाद्यों का वादन, (4) मणिरत्नवृष्टि, एवं ( 5 ) कुसुमरज मिश्रित सुखद पवन का बहना ।
घत्ता - अक्षयदान घोषित कर, पापों को नष्ट कर, गुण-समृद्ध एवं रतिजयी वे पार्श्वनाथ नाना मुनीन्द्रों के संघ सहित लोगों को सम्बोधित करते हुए विहार करने लगे । (108)
126 :: पासणाहचरिउ