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11/17 Mahāsārthawāha Samudradatta the leader of the caravan of traders comes to ascetic
Aravinda with his companions to attend his religious discourses. समुद्ददत्त-वाणिओ
असेस लोय जाणिओ।। णिएवि तं मुणीसरं
समो हरो विणीसरं।। तओ गओ तुरंतओ
महंत भत्ति-जुत्तओ।। मुणिंद पाइ लग्गओ
गिरिंदि णाइ दिग्गओ।। भवंतएण साहुणा
पलंब थोर बाहुणा।। विइण्ण धम्म-विद्धिया
विसुद्धि सिद्ध-सिद्धिया।। पसंसिऊण चारुणा
वयट्ठ रोर दारुणा।। असेस लोयणाहिणा
बहुत्त सत्थ-वाहिणा।। गहीर धीर वाणिणा
समुद्ददत्त-वाणिणा।। मुणिंदु धम्मु पुच्छिओ
लवेइ सोइ इच्छिओ।। भवंबुरासि तारओ
चउग्गइ णिवारओ।। महागिरिंद धीरओ
सकति धत्थ हीरओ।।
घत्ता–बुज्झिज्जहिँ भव् उज्झियगड़े फलदाणु जि दयारओ।
विहि पत्तु पयत्तें पंचगवत्तें परिविहुणिय मायारओ।। 201 |
___ 11/17 महासार्थवाह-समुद्रदत्त सदल-बल अरविन्द मुनीन्द्र से धर्म-प्रवचन सुनता हैसमस्त लोकों में प्रसिद्ध उस सार्थवाह समुद्रदत्त नाम के वणिक् ने कायोत्सर्ग-मुद्रा में समताधारी उन मुनीश्वर अरविन्द-भट्टारक को मौन धारण किये हुए जब देखा, तो अत्यन्त भक्तिभाव से भरकर तुरन्त वह उनके पास गया, उनके चरणों में इस प्रकार आ लगा, मानों दिग्गज ही गिरीन्द्र के पास आ गया हो। भव-भवान्तरों के नाशक, कायोत्सर्ग-मुद्रा के कारण आजानबाहु, इन मुनीन्द्र ने उस सार्थवाह को विशुद्ध-सिद्धि की साधक “धर्मवृद्धि रूप आशीर्वाद प्रदान किया।
अपने उदार दान से पण्डित जनों की बढ़ती हुई दारुण दरिद्रता को दूर करने वाले, गम्भीर धीर वाणी वाले अनेक सार्थवाहों के समूह से युक्त उस लोक प्रधान समुद्रदत्त वणिक ने उनकी विनम्र प्रशंसा-स्तुति कर, उनसे धर्म के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की। तब भव-समुद्र के तारक, चतुर्गतियों के निवारक, गिरिराज-सुमेरु के समान धीर और अपनी कान्ति से हीरे की कान्ति को भी निस्तेज करने वाले उन मुनिराज ने इच्छित धर्म-विषय पर अपने प्रवचन में कहा
घत्ता- गर्व का उच्छेद कर दयारत भव्यजनों को इन पाँच बातों की जानकारी होना चाहिये- (1) दान का स्वरूप,
(2) दान का फल, (3) दयारत धर्म, (4) दान की विधि, एवं, (5) दान के पात्र । ये पाँचों बातें प्रयत्न पूर्वक जानना चाहिये क्योंकि वे माया रूपी रज को नष्ट करने वाली हैं।। 201 ।।
पासणाहचरिउ :: 233