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भायाणय-हरियाण - मगह-गुज्जर- सोरट्ठहँ ।।
इय एवमाइ देसेसु णिरु जो जाणियइ णरिंदहिँ ।
सोलु साहु ण वण्णियइ कहि सिरिहरु कइ - विंदहि ।। 8 ।।
और जो नट्टल साहू अंग, बंग, कलिंग, गौड, खस, भोट्ट, नेपाल एवं मगध (पूर्व दिशा स्थित), सिन्धु, मालव, लाट, टक्क, भादानक, गुज्जर, एवं सोरट्ठ (पश्चिम दिशा स्थित), पांचाल, जट्ट एवं हरयाणा (उत्तर दिशा स्थित) और केरल, कर्नाटक, चोड, द्रविड, कुंकण, मरहट्ठ, (दक्षिण दिशा स्थित ) आदि-आदि देशों के राजाओं द्वारा जाना जाता है अर्थात् वे सभी राजा नट्टल को अपने एक विश्वसनीय मित्र के समान उसका आदर करते हैं। ऐसे नट्टल साहू का अब आप ही बताइये कि बुध श्रीधर जैसे कवि उसका वर्णन कर क्यों प्रशंसा न करे? ।। 8 ।।
दहलक्खण जिण भणिय धम्मु धुरधरणु वियक्खणु । लक्खण-उवलक्खिय सरीरु परचित्तुवलक्खणु ।। सुहि सज्जण बुहयण विणीउ सीसालंकरियउ । कोह- लोह-मायाहिमाण-भय-मय-परिरहियउ ।। गुरुदेव-पियर-पय-भत्तियरु अयरवाल-कुल- सिरितिलउ ।
दउ सिरिणट्टलु साहु चिरु कइ सिरिहर गुणगणणिलउ || 9 ||
जिनेन्द्र द्वारा भाषित दशलक्षण धर्म की धुरा का धारक, विचक्षण, शुभ लक्षणों से उपलक्षित शरीर वाला, परचित्त को उसकी मुख-मुद्रा देखकर ही समझ जाने वाला, सुधीजनों, सज्जनों एवं बुधजनों के लिये विनीत, शीलगुण से अलंकृत, क्रोध, लोभ, माया, अहंकार, भय, मद आदि का परित्यागी, गुरु, देव एवं माता-पिता के चरणों की भक्ति करने वाला, अग्रवाल कुल रूपी लक्ष्मी के सौभाग्य का सिन्दूरी तिलक तथा कवि बुध श्रीधर द्वारा प्रशंसित प्रशस्त गुणगण के लिय स्वरूप वह साहू नट्टल चिरकाल तक नन्दित रहे ।। 9 ।।
गहिर-घोसु-णव-जलहरुव्व सुरसेलुव धीरउ |
मलभररहियउ णहयलुव्व जलणिहि व गहीरउ । । चिंतिययरु चिंतामणिव्व तरणिव तेइल्लउ । माणिणि-मणहर-रइवरुव्व भव्व-मण-पियल्लउ ।। 10 ।।
नवीन सघन जलधर के समान गम्भीर घोष करने वाला, सुमेरु के समान धीर, नभस्तल के समान मलभार से रहित, जलनिधि के समान गम्भीर, चिन्तन करने वालों के लिये चिन्तामणि रत्न के समान, सूर्य के समान तेजस्वी, मानिनियों के मान को हरण करने के लिये रतिवर कामदेव के समान, भव्यजनों के लिये प्रिय तथा - ।। 10 ||
गंडीउ व गुण-गुण-मंडियउ परिणिम्महिय अलक्खणु ।
जो सो वण्णियइण केउ ण भणु णट्टलु साहु सलक्खणु ।। 11 ||
गाण्डीव-धनुष के धारी अर्जुन के समान गुण- गणों से मण्डित, दुष्ट शत्रुओं का परिमन्थन करने वाला तथा शुभलक्षण - लक्षित जो नट्टल साहू है, उसका जैसा (समग्र) वर्णन होना चाहिए, वैसा प्रशंसात्मक वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता ।। 11 ।।
264 :: पासणाहचरिउ