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इसके लिये पाँचवीं सन्धि के चौथे कडवक का शीर्षक देखिये।
चउविहु-बल-8/1/13,5/4/19
अक्खोहिणि-बलु हयसेणु (हयसेन)-1/12/1
वम्मदेवी (वामादेवी)-1/12/13
वरसुइणावलि-10/13/10
(वरस्वप्नावलि)
हूण (विदेशी जाति)-2/8/11
युवराज पार्श्व के पिता। आचार्य गुणभद्र (उत्तरपुराण 73/75) तथा महाकवि वादिराज (पार्श्वचरित 9/65) ने उन्हें हयसेन न कहकर विश्वसेन कहा है। समवायांग सूत्र (247) में आससेन का उल्लेख मिलता है, जो कि अश्वसेन का रूपान्तर है। बुध श्रीधर ने इन्हें हयसेन कहा है। पार्श्व की माता-वामादेवी। पार्श्वचरित-ग्रन्थों में इनके नामों की विविधता मिलती है। आचार्य गुणभद्र (उत्तरपुराण 73/75) ने उनका नाम ब्राह्मी तथा महाकवि वादिराज ने उन्हें ब्रह्मदत्ता कहा है (पार्श्वचरितम् 9/95) तथा समवायांग सूत्र (247) में उनका नाम वामादेवी बतलाया गया है। जैन-परम्परा के अनुसार तीर्थंकर-जीव जब माता के गर्भ में आता है तब वह माता रात्रि के अन्तिम प्रहर में 16 स्वप्न देखती है- नामावलि के लिये देखें प्रस्तुत ग्रन्थ का पद्य 1/19-20। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार तीर्थंकर माता सिंहासन एवं नागालय को छोड़कर केवल 14 स्वप्न देखती है। यह एक विदेशी लड़ाकू जाति थी, जिसने मध्य एशिया से गुप्त-सम्राट् कुमारगुप्त (प्रथम) के राज्यकाल में भारत पर आक्रमण किया था, किन्तु स्कन्दगुप्त ने उसे असफल कर दिया था। हूण राजा तोरमाण तथा मिहिरकुल ने छठी सदी में पश्चिम भारत पर विजय प्राप्त कर वहाँ शासन किया। नौंवी सदी में इन हूणों ने मालवा के उत्तर-पश्चिम में वहाँ के राजाओं को पराजित कर वहाँ अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था, जो हूणमण्डल के नाम से प्रसिद्ध था, किन्तु दसवीं सदी के अन्त में परमार नरेश वाक्पतिराज (द्वितीय) तथा सिन्धुराज ने उक्त हूणमण्डल को समाप्त कर दिया था। महाकवि श्रीधर ने नेपाल के साथ खस देश के राजा का उल्लेख किया है। इससे विदित होता है कि नेपाल के पश्चिम एवं पूर्व में इनका आधिपत्य रहा होगा। डॉ. जे.सी. जैन (Life in Ancient India as depicted in Jain canons, P. 362 ) के अनुसार यह जाति काश्मीर घाटी के दक्षिण में रहनेवाली एक जनजाति थी, जो वर्तमान में खाख कही जाती है। दसवीं सदी के मध्य में खस जाति के सामन्त काश्मीर पर शासन कर रहे थे। (History and Culture of Indian People, Vol. IV, P. 84) दक्षिण भारत का अत्यन्त पराक्रमी, साहित्यरसिक, कला-प्रेमी तथा आठवीं- नवमी सदी का एक सुप्रसिद्ध राजवंश। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। इस राजवंश के आश्रय में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़ के विविध विषयक विशाल साहित्य का प्रणयन किया गया। अमोघवर्ष इस राजवंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध सम्राट् था, जो बाद में स्वयं साहित्यकार बन गया। उसकी कन्नडप्रति- "प्रश्नोत्तर रत्नमालिका बहुत प्रसिद्ध है। इस वंश का अन्तिम शासक राजा इन्द्रायुध (चतुर्थ, सन् 982) हुआ, जिसे चालुक्य-नरेश तैलप ने युद्ध में पराजित किया था।
खस (एक विदेशी जाति)-4/5/8
रट्टउड (राष्ट्रकूट राजवंश)-2/18/12
268 :: पासणाहचरिउ