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12/10 King Chakrāyudha also renounced the world after enthroning his son Vajrāyudha.
एत्थंतरि चक्काउहु णरिंदु ता पलिउ दिदु णिय सिरि फुरंतु लहु लेहि दिक्ख जा गलइ णाउ तहिँ अवसरि आवाहिवि सपुत्तु अप्पिवि सलच्छि महि सयल तासु खेमंकर जिणवर पय णवेवि परियाणिवि सयलागम-वियारु विहरंतउ गउ मुणि विविह विहरे तहिँ तणु विसग्गु करि थियउ जाम तम-णरय तिक्खु दुक्खइँ सहेवि
पविरइय रज्जु जा णं सुरिंदु ।। जंपतउ णं णरवइ तुरंतु ।। ण गिलिज्जइ झत्ति जमेण काउ।। वज्जाउहु णामें गुण-णिउत्तु।। अप्पुणु पुणु उज्झिवि गेह-वासु ।। दिक्खंकिउ उरे तिरयणु थवेवि।। विणिवारिवि णियमणु गउ-वियारु।। भीमाडइ वणे जलणगिरि-सिहरे।। अयगरहो जीउ संपत्तु ताम।। जलणगिरिहे भिल्लत्तणु लहेवि।।
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घत्ता- णामेण कुरंगउ अइणिदंगउ चिर रिउ मुणि पेक्खेविणु।
दिदु धणुहुँ धरेप्पिणु सरु संधेप्पिणु तेण णिहउ हक्के प्पिणु।। 219 ।।
12/10 राजा चक्रायुध भी अपने पुत्र वजायुध को राज्य-पाट सौंपकर दीक्षित हो जाता है
इसी बीच सुरेन्द्र के समान वह चक्रायुध नरेन्द्र जब अपना राज्य-संचालन कर रहा था, तभी उसने अपने सिर में चमकता हुआ एक सफेद बाल देखा, मानों वह राजा से कह रहा हो कि हे नरपति, जब तक आयु गलित होने लगे अथवा यमराज के द्वारा वह निगले जाने की स्थिति में आये, इसके पूर्व शीघ्र ही दीक्षा धारण कर लो।
उसी समय उस चक्रायुध ने गुणनिधान अपने पुत्र वजायुध को बुलाकर लक्ष्मी सहित पृथिवी-मण्डल का समस्त राज्य उसे सौंपकर पुनः स्वयं गृहावास छोड़कर क्षेमंकर-जिन के चरणों में नमस्कार कर और हृदय में रत्नत्रय की स्थापना कर दीक्षा धारण कर ली। समस्त आगम-शास्त्रों के सिद्धान्तों को जानकर, अपने मन के विकारों को समाप्त कर, विहार करते-करते वे चक्रायुध मुनि अनेक पक्षियों के आवास वाली भीमाटवी में ज्वलन-गिरि के शिखर पर पहुँचे। वहाँ वे कायोत्सर्ग-मुद्रा में थे, अजगर-सर्प का वह जीव भी, जो कि पूर्व में कमठ का जीव-अजगर हुआ था और वही तमप्रभा नाम के नरक के तीव्र दुखों को सहन करके ज्वलन-गिरि पर भील के रूप में उत्पन्न हुआ, वह भी वहाँ आ पहुँचा।
घत्ता- उस भील का नाम कुरंग था जो शरीर से अतिनिन्द्य था। उसने मुनिराज-चक्रायुध को देखकर उन्हें पूर्व
जन्म का रिपु जानकर अपने हाथ में दृढ़तापूर्वक धनुष को धारण कर और उससे सुदृढ़ वाण छोड़कर ललकार कर उन्हें मार डाला।। 219 ।।
252 :: पासणाहचरिउ