________________
कसणटुमीहिँ अगहणमासि सिरिपासणाह-णिम्मल-चरित्तु पणवीस-सयइँ गंथहो पमाणु
रविवारि समाणिउ सिसिर-मासि।। सयलामल-गुणरयणोह-दित्तु।। जाणिज्जहिँ पणवीसहि समाणु।।
15
घत्ता- जा चंद-दिवायर महिहर-सायर ता बुहयणहिँ पढिज्जउ ।
भवियहिँ भाविज्जउ गणिहिँ थुणिज्जउ वर-लेहयहिं लिहिज्जउ/122711
Colophon
इय सिरिपासचरितं रइयं बुह-सिरिहरेण गुण-भरियं । अणुमण्णिय मणुज्ज णट्टल णामेण भव्वेण ।। छ।।
पुव्व-भवंतर-कहणो पासजिणिंदस्स चारु णिव्वाणो। जिणपियर-दिक्खगहणो बारहमो संधी परिसम्मत्तो।। छ।। संधि 12 || छ।।
के क्रम से बीत जाने पर शिशिर ऋतु (शीत) में अगहन-मास की कृष्ण-अष्टमी रविवार के दिन इस ग्रन्थ का लेखन समाप्त हुआ। समस्त निर्दोष गुणरूपी रत्नों से दीप्त श्री पार्श्वनाथ के निर्मल-चरित सम्बन्धी इस ग्रन्थ का प्रमाण 2500 ग्रन्थाग्र है, जो (अपनी सरलता एवं सरसता के कारण सामान्य स्वाध्याय-प्रेमियों के लिये-) 25 ग्रन्थाग्र के समान लगेगा ऐसा, जानो।
घत्ता- जब तक चन्द्र है, सूर्य है, पर्वत है, समुद्र है, तब तक बुधजन इस ग्रन्थ को पढ़ते रहें, भव्यजन इसे भाते
(विचारते करते रहें, गुणीजन इसकी स्तुति-प्रशंसा करते रहें और सुबुद्ध एवं प्रबुद्ध लेखक कवि ऐसे-ऐसे अनेक पार्श्व-चरित लिखते रहें।। 227 ।।
पुष्पिका बुध श्रीधर (कवि) ने गुण-भरित एवं मनोज्ञ इस श्रीपार्श्वचरित की रचना की है, जिसकी साहू नट्टल नामके भव्य सज्जन ने अनुमोदना की है।
श्री पार्श्वजिनेन्द्र के पूर्व-भवान्तरों का कथन, पार्श्वजिनेन्द्र का उत्तम निर्वाण-कल्याणक तथा जिनेन्द्र पार्श्व के माता-पिता की दीक्षा-ग्रहण सम्बन्धी बारहवीं सन्धि समाप्त हुई।
पासणाहचरिउ :: 261