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12/17 Enumeration of four-fold council (Chaturvidha Sangha) of Lord Pārswa who attained ultimate goal (Nirvana) from Sammedachala (Now in Jharkhand State). केहिमि पुणु पंच-महव्वयाइँ
केहिमि लइयाइँ अणुव्वयाइँ।। केहिमि सम्मत्तु भवंतयारि
केहिमि पणविउ जिणु णिज्जियारि।। तहो गणहर हुअ दह दुरियवारि पुव्वहर-मुणिंद सयाइँ चारि।। सिक्खु व अट्ठारह-सयइँ जेम
पण्णारह-सय अवहीस तेम।। तेत्तिय केवलि विक्किरिय-जुत्त सणवइ-सहसेक्क तिगुत्ति-गुत्त।। णवसय-मणपज्जय-हर-मुणिंद वाइंद-अट्ठसय थुअ-जिणिंद ।। अज्जयइँ सहसाइँ-अट्ठतीस
सावयहँ लक्खु भासहि रिसीस।। सावियइँ तिण्णि-लक्खइँ असंख सुर जाणिज्जहो पसु पुणु ससंख।। विहरंतउ चउविह-संघ-जुत्तु
पयडंतउ भवियहँ पुरउ सुत्तु।। चउतीसातिसय सिरीणिकेउ
तेवीसम् जिण देवाहिदेउ।। वसु-पाडिहेर-भूसिय-सरीरु
णिब्मच्छिय दुज्जयमारवीरु।। चउदेव-णिकायहिँ थुव्वमाणु
मुणिवर-विंदहिँ सेविज्जमाणु ।। भवियण जणेहिँ भाविज्जमाणु किण्णर-णारिहिं गाइज्जमाणु।। पत्तउ सम्मेयमहागिरिदि
दरिसिय भमंत दुज्जय करिंदि।। तहिँ दंड-कवाड-पयरु करेवि तिजयंतरालु पूरण करेवि।। दुगुणिय चउहत्तरि पयडि पासु तोडे प्पिणु झत्ति जिणिंदु पासु।। सावण-मासहो सिय-सत्तमीहिँ
ससहर-किरणालि-मणोरमीहिं।।
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12/17 पार्व-प्रभु के चतुर्विध-संघ की गणना एवं सम्मेदाचल (झारखण्ड-प्रान्त में स्थित)पर उनका मोक्षगमन __वहाँ पार्श्वप्रभु के समीप किन्हीं ने पाँच महाव्रत धारण किये तो किन्हीं ने अणुव्रत लिये। किन्हीं ने भवों का अन्त कर देने वाले सम्यक्त्व को धारण किया, तो किन्हीं ने कर्म-शत्रु को जीतने वाले पार्श्व-जिनेन्द्र को प्रणाम किया।
उन पार्श्वप्रभ के पापों का वारण करने वाले 10 (दस) गणधर थे। पर्वधारी मनीन्द्रों की संख्या 400. शिक्षक 1800, अवधिज्ञानी 1500, उतने ही केवलज्ञानी और उतने ही विक्रिया-ऋद्धिधारी, त्रिगुप्तिगुप्त साधु 1090, तथा मनःपर्ययज्ञानधारी मुनीन्द्र 900, जिनेन्द्र की स्तुति करने वाले वादीन्द्रों की संख्या 800, आर्यिकाएँ 38000 और श्रावक गण 1 लाख थे, ऐसा ऋषीश्वरों ने कहा है। श्राविकाएँ 3 लाख थी, देवगण असंख्य और पशु संख्यात थे, ऐसा जानो।
इस प्रकार चतुर्विध-संघ सहित विहार करते-करते भव्यजनों को नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में आगम-सूत्रों के अर्थ को समझाते हुए, 34 अतिशय-रूपी लक्ष्मी के निकेत (घर) वे तेबीसवें जिनदेवाधिदेव पार्श्वप्रभु अष्ट-प्रातिहार्यों से भूषित शरीर, दुर्जेय कामवीर को नष्ट करने वाले, चतुर्निकाय देवों द्वारा स्तूयमान, मुनिवरों द्वारा सेवित, भव्यजनों द्वारा भावित, किन्नर-नारियों द्वारा किये जाने वाले स्तुति-गीतों के साथ उस महान् गिरिराज सम्मेदाचल पर पहुंचे, जहाँ दुर्जेय करीन्द्रगण इधर-उधर भ्रमण करते हुए देखे जाते थे।
वहाँ जाकर (योग-निरोधकर-अनगार-केवली बनकर-) दण्ड, कपाट, प्रतर समुद्धात कर उन्होंने तीनों जगत के अन्तराल को भरने वाला लोकपूर्ण केवली का समुद्धात किया। इस प्रकार चौहत्तर के दुगुने अर्थात् 148 प्रकृतियों के पाश को पार्श्व-जिनेन्द्र ने झट से तोड़ा और श्रावण-मास की चन्द्र-किरणों से मनोहर शक्ल सप्तमी के दिन
पासणाहचरिउ :: 259