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Hearing about the sorrows of re-births, Emperor Hayasena and queen Vāmādevi renounce the world and accept asceticism.
णामेण पसिद्धउ विस्सभूइ सोमवप्पु इह त्थु जाउ जाहिँ जि कालि महु आसि माय जा कम हो गेहिणि तित्थु कालि सा एह पहावइ पह- समिद्धि जा कुल-कलंक उवहसिय- संत सा एह भवण्णव भवण भीम जं पुच्छिउ पइँ हु पुव्व - जम्मु तं सयल कहिउ तुह णायराय हयसेणें दुक्ख णिरंतराइँ धरणीहर- पुत्तहो देवि रज्जु संगहिय दिक्ख पणवेवि पासु
आवज्जिय णाणाविह विहूइ ।। वाणारसिहिं हयसेणु राउ ।। सा वम्मदेवि महु माय जाय ।। भाउज्ज मज्झ संपय विसालि ।। रविकित्ति राहिव सुअ पसिद्धि ।। णामेण वसुंधरि मज्झु कंत ।। णामेण सयं पह-गणिय-धीय । । कमठासुरासु दूसहु अगम्मु ।। फण-मणियर-गण- विप्फुरिय काय ।। आयण्णिवि पुव्व-भवंतराइँ । । नियमणि चिंतिउ परलोय - कज्जु ।। तोडिय तडत्ति संसार- पासु ।।
घत्ता - वम्मादेवि पुणु पणवेवि जिणु घरु पुरु परियणु दूसिवि ।
थिय पयणिय सिद्धिए तिरयण-सुद्धिए तणु तव - सिरिए विहूसिवि ।। 225 ।।
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जन्म-जन्मान्तरों के दुख सुनकर राजा हयसेन एवं
वामादेवी को वैराग्य हो जाता है और वे दीक्षा ले लेते हैं
- विश्वभूति नाम से प्रसिद्ध वही ( पूर्व जन्म का जीव) ब्राह्मण पुरोहित, जो कि इस जन्म में नाना प्रकार की विभूतियों से समृद्ध वाणारसी के राजा हयसेन हैं, वे ही मेरे पिता हैं। पूर्व जन्म में ( मरुभूति - भव में) जो अनुन्धरी नामकी मेरी माता थी, वही मरकर अब मेरी माता वामादेवी हुई हैं। जो पूर्व जन्म में कमठ की गृहिणी तथा मेरी जो भावज थीं, वही वहाँ से मरकर अब प्रभा एवं समृद्धि से समृद्ध प्रभावती के रूप में उत्पन्न हुई हैं, जो कि नराधिप रविकीर्ति की सुप्रसिद्ध सुता है । पूर्वजन्म में कुल - कलंकिनी तथा सज्जनों द्वारा उपहसित वसुन्धरी नामकी मेरी कान्ता (पत्नी) थी, वही संसार रूपी समुद्र से भयभीत यह स्वयम्प्रभ - गणधर की पुत्री हुई है।
इस प्रकार फणि-मणि से दीप्त देहधारी हे नागराज, तुमने जो मेरा पूर्व-जन्म एवं कमठासुर का दुःसह अगम्य पूर्व-जन्म पूछा है, वह सब मैंने तुम्हें कह सुनाया है।
जब राजा हयसेन ने निरन्तर सुखों से भरे हुए पूर्व-भवान्तर सुनें, तब उन्होंने अपने मन में परलोक सुधारने सम्बन्धी चिन्तन किया और अपने पुत्र धरणीधर को राज्य-पाट सौंपकर पार्श्व प्रभु को प्रणाम कर उनके समीप ही दीक्षा ग्रहण कर ली और संसार की पाश तड़ से तोड़ डाली।
258 :: पासणाहचरिउ
घत्ता — वह वामादेवी भी जिनेन्द्र पार्श्व को प्रणाम कर घर, नगर, पुरजन एवं परिजनों को दोष रूप समझकर त्रिकरण की शुद्धि पूर्वक सिद्धि को देने वाली तपोलक्ष्मी से शरीर को भूषित करके वहीं स्थित हो गई अर्थात् आर्यिका पद पर प्रतिष्ठित हो गई ।। 225 ।।