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12/12 Once upon a time, Kanakaprabha, the Chakravarty-Emperor hears a very
fascinating voice from up above in the sky (Ākāśa-vāni). गब्महो णीसरियउ सुंदरंगु पुण्णहिँ णवमासहिँ णं णिरंगु।। कणयप्पहु तहो पिक्खिवि पिएण णिय तणुरुहासु बुहयण पिएण।। णामु जि कणयप्पहु धरिउ तासु वइरियणहँ मणि संजाउ तासु।। ससहरु व पवढइ संगहंतु
णिम्मल कलाउ तम-भरु वहंतु।। कालंतरेण चक्कवइ जाउ
छक्खंडावणि रायाहिराउ।। णवणिहि चउदह-रयणाहिवासु
दुव्वारवइरिकालाहिवासु।। साहिय खयरायल उहय-से दि
मंदिर धयग्ग वोमयल लेदि।। चउरासी लक्ख मयंगमाहँ
अट्ठारहकोडि तुरंगमाहँ।। वर गाम-खेड-दोणामुहाहँ
अणवरय दिण्ण णिम्मल सुहाहँ।। कव्वड-मडंब-संबाहणाहँ
णयरायर पुरवर पट्टणाहँ।। बत्तीस सहास महाभडाहँ
णिद्दलिय वइरि वयणुमडाइँ ।। छण्णवइ सहासंतेउरासु
सामिउ रणंत पयणेउरासु।।
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घत्ता- इय असरिस लच्छिहिँ पवर मयच्छिहिँ चक्कवट्टि जा सोहइ।
ता हुउ मणहर-रउ परिविहु णिय-भउ जो तिजगु वि संबोहइ।। 221 ।।
12/12 एक दिन चक्रवर्ती-सम्राट् कनकप्रभ सुमधुर आकाशवाणी सुनता है
नौ मास पूरे होने पर जब उस बालक ने जन्म लिया तो उसका अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सन्दर था, प्रतीत होता था मानों कामदेव ही हो। बुधजनों के लिये प्रिय उस बालक के पिता ने जब उसे कनक की प्रभा वाला देखा, तो शत्रुजनों के मन को संत्रस्त कर देने वाले उस बालक का नाम कनकप्रभ रख दिया। अज्ञानान्धकार को नष्ट करता हुआ, सम्पूर्ण निर्मल-कलाओं का संग्रह करता हुआ वह बालक वृद्धिंगत होने लगा।
कालान्तर में वह छहखण्ड भूमण्डल का राजाधिराज चक्रवर्ती बन गया। उसके निकट नौ-निधियाँ एवं चौदह रत्नों का वास रहता था, दुर्निवार शत्रुओं के लिये वह काल (नागपाश) के समान था। उसने विद्याधरों के निवास की उभय श्रेणियाँ अपने वश में कर लीं। उसके राज-भवन के अग्र-भाग में लगी ध्वजा-पताकाएँ आकाशतल को छूती रहती थीं।
उस चक्रवर्ती सम्राट कनकप्रभ के अधिकार में 84 लाख श्रेष्ठ कोटि के हाथी, 18 करोड़ उत्तम कोटि के घोड़े, निरन्तर सुख प्रदान करने वाले उत्तम कोटि के ग्राम, खेट, द्रोणमुख, कर्वट, मडम्ब, संवाहन, नगर, आकर, पुर, उत्तम पट्टन, शत्रुओं का निर्दलन करने वाले 32 सहस्र महाभट तथा उतने ही वाणी में उद्भटवीर तथा चरणों में रुण-झुण-रुण-झुण करते नूपुरों वाली अन्तःपुर की रानियों की संख्या 96 सहस्र थी।
घत्ता- इस प्रकार असाधारण लक्ष्मी तथा प्रवर-कोटि की मृगनयनी रानियों से जब वह चक्रवर्ती कनकप्रभ
सशोभित था, तभी अपने मन के भय को मिटाने वाली तथा त्रिजगत को भी संबोधित करने वाली मनोहर (आकाश-) वाणी हुई।। 221 ||
254 :: पासणाहचरिउ