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12/13 Chakravarty Chakrāyudha observes vigorous penance and
makes way himself to become Tīrthamkara. तं णिसुणेवि पुच्छिउ मंतिवग्गु चक्काहिवेण वज्जरण लग्गु।। णामेण जसोहर जिणवरिंदु
तित्थयरु तिविह लोयहो दिणिंदु ।। उप्पण्णउ केवलणाणु तासु
खर-दिणयर-किरण सहास भासु ।। तेणाहय सुरदुंदुहि रवेण
वंदणहँ तियस जय-जय रवेण ।। तं सुणेवि सपरियणु गयउ तेत्थु समसरण सहिउ तित्थयरु जेत्थु ।। तहिँ णिसुणेवि तिल्लोकहु वियारु पुत्तहो सिरि देप्पिणु णिब्वियारु।। अप्पुणु होएवि मुणी वणंति
परिसंठिउ खयरावलि रणति।। तउ तवइ घोरु परिसह सहंतु णिम्मलयर सहल लच्छिए सहंतु ।। सोलहकारण सिरि अणुसरंतु बारह-अणुवेक्खउ मणि भरंतु ।। अज्जंतु णाम गोत्तइँ जिणासु पुव्वत्तरायहो विरयंतु णासु ।। णवकोडि विसुद्धउ असणु लिंतु विहरंतउ अभयपदाणु दिंतु ।।
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घत्ता- पत्तो भीसणवणे विविह करुह गणे तहिँ गिरिसिहरे चडेप्पिण।
जा थिउ सुहझाणे पयडियणाण काउसग्गु विरएविणु।। 222 ||
12/13 चक्रवर्ती-चक्रायुध घोर तपस्या कर तीर्थंकर-गोत्र का बन्ध करता हैउस मनोहर-ध्वनि को सुनकर उस चक्रवर्ती-सम्राट चक्रायुध ने जब अपने मन्त्री वर्ग से पूछा- तब वे कहने लगे (हे राजन) – तीनों लोगों के लिये सूर्य के समान यशोधर नाम के तीर्थंकर जिनवरेन्द्र के लिये, ग्रीष्म के मध्यकालीन सूर्य की सहस्र प्रखर-किरणों के समान भासमान केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। इस कारण देवगण उनकी वन्दना-भक्ति के लिये देव-दुन्दुभि वाद्यों को बजाते हुए तथा जय-जय घोष करते हुए आये हैं।
गों का कथन सनकर वह चक्रायध अपने परिजनों के साथ वहाँ पहँचा, जहाँ समवशरण सहित वे तीर्थंकरदेव विराजमान थे। वहाँ तीनों लोकों सम्बन्धी प्रवचन सुनकर वह (संसार के प्रति) निर्विकार हो गया और पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर स्वयं मुनि-दीक्षा लेकर उस वनान्त में ध्यानस्थ हो गया, जहाँ पक्षिगण कलरव कर रहे थे। निर्मलतर सहज लक्ष्मी (ज्ञानादि गुण-) से शोभायमान वे (मुनिराज) घोर परीषहों को सहन करते हुए कठिन तप तपने लगे, सोलहकारण भावनाओं की श्री-शोभा का अनुसरण करने लगे, बारह-भावनाओं को मन में भाने लगे। इसी दशा में उन्होंने तीर्थंकर नामक गोत्र का अर्जन कर लिया। तत्पश् कृत रागादि पाप का नाशकर, नवकोटि विशुद्ध आहार लेते हुए, (समस्त प्राणियों को-) अभयदान देते हुए वे मुनिराज विहार करने लगे
घत्ता- और विहार करते-करते वे विविध वृक्ष-समूह वाले एक भीषण वन में पहुँचे। वहाँ गिरि-शिखर पर चढ़कर,
कायोत्सर्ग-मुद्रा धारण कर, ज्ञान को प्रकट करने वाले शभ-ध्यान में स्थित हो गये।। 222 ||
पासणाहचरिउ :: 255