Book Title: Pasnah Chariu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 323
________________ 11/25 The right persons (ascetics). The process of providing food to ascetics (Uttama Pātra) and the effect of different types of charity. उत्तम पएसि विट्ठरि मुणिंदु वइसारिवि भविय कमल दिणिंदु ।। धोविज्जहिँ तहो पय णिम्मलेण सइँ विणउ पयासंते जलेण।। वसुविहु विरइवि पुज्जाविहाणु पच्छइ चउविहु आहारदाणु।। दिज्जइ फासुअ अप्पणु णिमित्तु जं विरइउ तं सिवपय-णिमित्तु ।। इय विहिणा मुणिहुँ विइण्णु दाणु तुच्छु वि णिच्छउ जायइ महाणु।। भयहीणु अभयदाणेण होइ जसवंतु चिराउसु भणइ जोइ।। आहारहो दाएँ भोयवंतु बल-विहव-रूव-सिरि तेयवंतु ।। ओसह-दाण णीरोउ-देहु सुयदाणे केवलणाण-गेहु।। ति-पयारहो पत्तहो तिविहु भोउ कुच्छिय-पत्तहो दिण्णउ कुभोउ।। पविइण्ण-अपत्तहो जाइ सुण्णु चउविहु वि दाणु जिह रण्णि रुण्णु।। इय भणेवि मउणु विरएवि मुणिंदु जा संठिउ परिवंदिय जिणिंदु।। ता कर मउलेवि पणविय सिरेण जंपिउ समुद्ददत्ते थिरेण।। घत्ता– तुह वयण सामिय सिवपय-गामिय स-सावय-वय पालेसमि। णट्टलु वण वेसमि जिण भावेसमि तव सिरिहर गुण-लेसमि।। 209 ।। 10 11/25 उत्तम पात्र - मुनिराज के लिये आहारदान देने की विधि एवं उसका तथा अन्य दानों के फल —भव्य कमलों के विकास के लिये सूर्य के समान उन मुनीन्द्र को उत्तम स्थान में एक आसन पर बैठाकर उनके प्रति विनय प्रदर्शित करते हुए उनके चरणों को निर्मल जल से पखारे (धोए)। फिर अष्ट द्रव बाद में शिवपद प्राप्ति की आकांक्षा से चार प्रकार का वही प्रासुक अचेतन आहारदान दे, जो अपने निमित्त बनाया गया हो। इस विधि से मुनीन्द्र के लिये दिया गया तुच्छ अर्थात् थोड़ा सा भी दान निश्चय ही महान् हो जाता है। ___ अभयदान से जीव निर्भय होता है, यशस्वी बनता है एवं चिरायुष्य होता है, ऐसा योगीगण कहते हैं। आहार दान देने से यह जीवन भोगवान तथा बल-वैभव सम्पन्न रूप श्री लक्ष्मी युक्त एवं तेजस्वी बनता है। औषधिदान देने से दाता की देह निरोग होती है तथा श्रुतदान से कैवल्यधाम की प्राप्ति होती है। तीनों प्रकार के पात्रों को दान देने से तीन प्रकार के भोग प्राप्त होते हैं। कुपात्र को दान देने से कुभोगों की कष्ट-कर प्राप्ति होती है। अपात्र को चतुर्विध-दान देना तो उसी प्रकार व्यर्थ होता है, जिस प्रकार अरण्य में रुदन करना। इस प्रकार प्रवचन कर जिनेन्द्र की वन्दना कर जब मुनीन्द्र मौन धारण कर ध्यानस्थित हो गये तब स्थिर मन वाले उस (सार्थवाह) समुद्रदत्त ने अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम कर उनसे कहा घत्ता- हे स्वामिन्, हे शिवपदगामिन्, मैं श्रावक-व्रतों का पालन करूँगा, नट्टल साहू के समान रहूँगा, जिनेन्द्र की तप-श्री की आराधना करूँगा और कवि श्रीधर की तरह गुण-ग्रहण करूँगा।। 209 ।। पासणाहचरिउ :: 241

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