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12/2 Being enlightened by the preachings of the great saint,
the elephant accepts vows (Vratas) from him. मरिऊण अट्टेण
झाणेण खुद्धेण।। जाओसि गयराउ
उत्तुंग गिरि-काउ।। भो-भो गयाहीस
करिजूहयंभीस।। . चइऊण मिच्छत्तु
लहु लेहि सम्मत्तु।। जेणेत्थु पावाइँ
कयदेह-तावा।। हणिऊण कय-सुक्खु
पावेहि लहु मुक्खु।। तं सुणेवि तो तेण
करि असणिघोसेण।। मिल्लिवि कुभावाइँ
संजणिय पावाइँ।। मुणि-पयइँ णवियाइँ
णियहियइँ थुवियाइँ।। संगहिय-सुवयाइँ
वज्जियइ कुमयाइँ।। तउ करइ करि जाम
सम्मेयगिरि ताम।। गउ मत्तगयगामि
अरविंदु मुणि सामि।। तहिँ सयल जिणवरहँ
तवलच्छि तियवरहँ।। णिव्वाण ठाणाइँ
वंदेवि समणाइँ।। सुह-झाणु धरिऊण
कम्मारि हणिऊण।।
घत्ता-- उप्पाइय केवलु अवियलु तव-बलु दरिसेवि पयणिय सोक्खहो।
अरविंदु भडारउ मयण-वियारउ संपत्तउ पउ मुक्खहो।। 211 ।।
12/2 अरविन्द मनीन्द्र के उपदेश से प्रभावित होकर वह गजराज-अशनिघोष व्रत ग्रहण कर लेता है
(मुनीन्द्र ने कहा-) तुम क्षुद्र आर्तध्यान के कारण मरकर उत्तुंग गिरि के समान कायवाले तथा गजयूथ को अभय (संरक्षण) देने वाले गजराज हुए हो। हे गजाधीश, अब तुम मिथ्यात्व को छोड़कर शीघ्र ही सम्यक व्रत धारण करो जिससे कि इस जन्म में देह को सन्ताप देने वाले पापकर्मों को नष्ट कर सुख देने वाले मोक्ष को प्राप्त कर सको।
गजराज अशनिघोष ने मुनीन्द्र के उस प्रवचन को सुनकर पापास्रव करने वाली, दूसरों को मारने वाली कुभावनाओं का त्यागकर मुनि-चरणों में प्रणाम किया, हृदय से उनकी स्तुति की और (मिथ्यामतों के श्रद्धान—) कुमतों को छोड़कर सुव्रतों को धारण किया और जब तपस्या करने लगा, तभी मत्तगज-गमन वाले मुनीन्द्र अरविन्द सम्मेदशिखर जा पहुंचे।
वहाँ तपोलक्ष्मी रूपी नारी के वर के समान समस्त जिनवरों के निर्वाण-स्थलों की शान्त मनपूर्वक वन्दना कर, शुभ (शुक्ल) ध्यान धारण कर कर्म-शत्रुओं को नष्ट कर
घत्ता- मदन का विदारण करने वाले वे अरविन्द-भटटारक अपना तपोबल प्रकट करके, अविचल, अविकल
(परिपूर्ण) केवलज्ञान को उत्पन्न कर सुखकारक मोक्ष के पद को प्राप्त हुए।। 211 ||
244 :: पासणाहचरिउ