Book Title: Pasnah Chariu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 330
________________ 5 10 12/6 King Vidyutvega accepts asceticism from the saint Samudra Sāgara. सिरि रयणतिलउ तहिँ पुरु पहाणु णामेण पसिद्धउ विज्जवेउ तो पिययम हुअ णामेण रयण तहो कीलंतहो संजाउ पुत्तु सो करि मरि जो संजाउ देउ साहिय असेस विज्जासमूहु कीलंतर पेक्खिवि णवजुवाणु जणणावाहिवि भणिवि पुत्तु लइ हि पुत्त तुहुँ रायलच्छि ण सुहाइ मज्झु संसारचारु णिवसइ तहिँ पहु कुल-कमल- भाणु ।। परियाणिय भव- परिभवण- भेउ ।। सिसु हरिण - णयणेच्छण इंदुवयण ।। पुव्वत्त पुण्ण पयडिय पहुत्तु ।। इव्वहिँ सद्दिज्ज किरणवेउ ।। विहडाविय बइरि करिंद - जूहु ।। सीमंतिणियण-मण-पंचवाणु ।। खेयरवइ-सिरि-विद्दवण-धुत्तु ।। घत्ता - इय भासिउ सायरु सम रयणायरु सायरमुणि पय-वंदिवि । पव्वज्ज समासिउ जिणगुणवासिउ विज्जवेउ अहिणंदिवि ।। 215 ।। मइँ पुणु साहिवी मुक्खलच्छी । । महणरहो संदरिसिय दुवारु ।। 12/6 राजा विद्युद्वेग समुद्र-सागर मुनि से प्रव्रज्या ग्रहण करता है उसी विजयार्ध (वैताढ्य ) पर श्री रत्नतिलकपुर नाम का एक प्रधान पुर (नगर) है। वहाँ अपने कुल रूपी कमल के लिये सूर्य के समान तथा भव-भ्रमण के रहस्य का जानकार विद्युद्वेग नाम का सुप्रसिद्ध राजा निवास करता था । उसकी रत्ना नामकी प्रियतमा थी, जो चन्द्रवदनी तथा बाल मृग के नेत्रों के समान नेत्रवाली थी। उन दोनों के क्रीड़ा करते-करते उनका एक पुत्र उत्पन्न हुआ । पहले जो हाथी मरकर देव उत्पन्न हुआ था, वही इस समय पूर्वकृत अपने पुण्य-प्रभाव से प्रभुत्व को प्रकट करने वाला उन दोनों के यहाँ उक्त जो पुत्र उत्पन्न हुआ, शब्द से उसका नाम किरणवेग कहा गया। उसने समस्त विद्याधरों को साध लिया और बैरी रूपी समस्त करीन्द्रयूथ को नष्ट कर डाला । उस नवयुवक को क्रीडा करता हुआ देखकर सीमन्तिनियों (कामिनियों) के मन में कामदेव के पाँचों बाण जैसे प्रविष्ट हो जाते थे। एक दिन पिता ने उसे बुलाकर कहा विद्याधर राजाओं की लक्ष्मी को प्राप्त करने में धूर्त- (प्रवीण) हे पुत्र, अब तुम उत्तम राज्य-लक्ष्मी को स्वीकार करो, क्योंकि मैं अब मोक्ष - लक्ष्मी की साधना करूँगा। मुझे यह संसार अब अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वह महानरक का द्वार दिखलाने वाला है 1 - 248 :: पासणाहचरिउ घत्ता — इस प्रकार आदरपूर्वक कहकर समता के सागर के समान समुद्रसागर नाम के मुनिराज के चरणों की वन्दना कर जिनेन्द्र के गुणों से वासित उस विद्युद्वेग ने उनका अभिवन्दन (स्तुति) कर उनसे प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।। 215 ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406