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12/7 After feeling the transitory nature of the worldly existence,
King Kiraņavega also accepts religious austerity. एत्तहे तहो तणुरुहु किरणवेउ पविरयइ रज्जु जाणिय विवेउ।। रंजिय मणु परियण-सज्जणाहँ णिद्दारइ उरु रिउ दुज्जणाहँ।। एक्कहिँ दिणे पेक्खेवि सरयमेहु चिंतइ सचित्ति गुणरयण-गेहु।। जा णज्जवि जर जज्जरइ देहु जा णज्जवि जम करि देइ वेह।। ता करउँ किंपि अप्पहो सकज्जु रविवेय सुयहो अप्पिवि सरज्जु ।। इय मणेवि णवेवि सुरगुरुहे पाय संगहिय दिक्ख णवकमलच्छाय।। विहरइ परियाणेवि सयल-सिक्ख मुणिवरु भव्वयणहँ दिंतु दिक्ख।। पालंत पंचमहव्वयाइँ
विसएसु जंत पंचेंदियाइँ।। वारंतु पंचसमदीहिँ जुत्तु
वि वरइ छावासय किरिय-सुत्तु।। दरिसंतउ ठिदि-मोयण-विहाणु तज्जंतु ण्हाणु मुणिगण पहाणु।। मुहरुह परिणिहसणु परिहरंतु भूसयणु लोयविहि अणुसरंतु ।। मणसुद्धिए भुंजइ एयभत्तु
चेलंचले हिँ छायइ ण गत्तु।। घत्ता- इय अट्ठावीसहिँ कायरभीसहिँ मूलगुणहिँ संजुत्तउ। जिणहर-वंदंतउ तमु विहुणंतउ पुक्खरद्धु संपत्तउ ।। 216 ।।
127 संसार की नश्वरता जानकर राजा किरणवेग भी दीक्षा ले लेता हैइसके बाद उस राजा विद्युद्वेग का, विवेक का ज्ञाता-पुत्र किरणवेग राज्य करने लगा। उसने समस्त परिजनों एवं सज्जनों के चित्त का जहाँ रंजन किया, वहीं शत्रुओं एवं दुर्जनों के वक्षस्थल का विदारण कर डाला।
अन्य किसी एक दिन गुण रूपी रत्नों के भण्डार स्वरूप उस राजा किरणवेग ने शरद-मेघ को (बनतेबिगडते-) देखकर अपने मन में विचार किया कि जब तक जरा (बढापा) आकर देह को जर्जर नहीं कर देता, जब तक यमराज रूपी हाथी आकर इस देह रूपी वृक्ष को तोड़ नहीं देता, तब तक मैं क्यों न आत्म-कल्याण कर मनुष्यभव को सार्थक (सकज्ज) कर लूँ।
यह विचार कर उसने अपने पुत्र राजकुमार रविवेग को सारा राज्य अर्पित कर सुर-गुरु (सूरीश्वर मुनीन्द्र) के नवीन कमल की कान्ति के समान श्रीचरणों में नमस्कार कर उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उनसे सभी प्रकार की आगम सम्बन्धी शिक्षाएँ लेकर वे मुनिवर-किरणवेग भव्यजनों को दीक्षा देते हुए विहार करने लगे। ___ पाँच महाव्रतों का पालन करते हुए, विषय-वासनाओं की ओर दौड़ने वाली पंचेन्द्रियों का संयमन करते हुए, पाँच
युक्त, आगम-सूत्रों में कथित छह प्रकार की आवश्यक-क्रियाओं के अनुसार आचरण करते हुए, स्थितिभोजन के विधान को दिखलाते हुए, स्नान-त्यागी, मुनियों के प्रधान, दाँतों के घिसने का परिहार करते हुए, भू-शयन तथा केशलोंच-विधि का अनुसरण करने लगे। वे मन की शुद्धिपूर्वक एक बार आहार ग्रहण करते थे और शरीर को वस्त्र-खंडों से कमी भी ढंकते न थे। घत्ता- इस प्रकार कायरजनों के लिये अत्यन्त कठिन अट्ठाइस मूलगुणों से युक्त, जिनालयों की वन्दना करते हुए,
अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करते हुए वे मुनिराज किरणवेग पुष्करार्ध द्वीप-पर्वत पर पहुँचे।। 216 ।।
पासणाहचरिउ :: 249