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9/6 Description of types and Heavenly abode of celestial souls (Bhavanavāsi Devas) and
peripatetic celestial souls (Vyantara Devas). सुरगिरि-तलि मोएहिँ ण मुच्चहिँ
भावण-सुरवर दहविह वुच्चइँ।। ताहँ वि पढम कुमरे तासुर
णायकुमार सिरोमणि भासुर।। हेमकुमार कुमार तोवहि
दिक्कुमार गुण-रयण-महोवहि।। थणियकुमार कुमारताणिल
विज्जकुमार कुमार ताणल।। दीवकुमार महामहिहर थिर . भवणहँ संख ताहँ भणियइँ किर।। कोडिउ सत्त तिलोए पसिद्धउ बाहत्तरि लक्खेहिँ समिद्धउ।। तावंतिउ जिणहरहँ जिणेसहँ
गय मल केवलणाण दिणेसहँ ।। तिरिलोए विंतर-सुर णिवसहिँ रज्जुअ परिमाणए सुहु विलसहिँ।। अट्ठ पयार पढम तहिँ किण्णर किंपुरिसोरय गंधव्वामर।। जक्ख-रक्ख पर-पक्ख निरुंभण भूय-पिसाय महारि-णिसुंभण।। ए पहाण अवर वि वेलंधर
पण्णय सिद्ध अणेय धुरंधर।। के वि वसहिँ कंदर-दर-विवरहिँ कुलगिरि-सुरगिरि-सिरि धवल-हरहिँ।। के वि गयण-सरि-सर-सयरहरहिँ के विकणय-तोरण वं महरहिँ।।
के विदीवि णंदण-वण सीमहिँ के वि णयर-पट्टण-पुर-गामिहिँ।। 15
घत्ता के वि जलणिहि तीरहिँ के वि वर-पंडुसिलहिँ। के वि चेइय-सिहरेहिँ के वि महाकुहर-विलहिँ।। 150 ।।
9/6 भवनवासी एवं व्यन्तर देवों के नाम तथा उनके निवास-स्थलसुमेरु पर्वत के नीचे दस प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं। वे भोगों से मुक्त नहीं होते। ये देव दस प्रकार के कहे गये हैं- उसमें से प्रथम- 1) असुरकुमार, 2) मणियों से भास्वर मस्तक वाले नागकुमार, 3) हेमकुमार, 4) उदधिकुमार, 5) गुण रत्नों के सागर दिक्कुमार, 6) स्तनित कुमार, 7) वायु कुमार, 8) विद्युत्कुमार, 9) अग्नि कुमार और 10) महापर्वत के समान स्थिर द्वीपकुमार।
भवनवासियों के तीन लोक में प्रसिद्ध समृद्ध भवनों की संख्या सात कोटि बहत्तर लाख है और जो निर्मल केवलज्ञान रूपी सूर्यश्रीयुक्त जिनेन्द्र के बिम्बों से विराजित हैं।
एक रज्जु प्रमाण वाले तिर्यक् लोक में व्यन्तर देवों का निवास है, जहाँ वे सुख विलास पूर्वक रहते हैं।
वे आठ प्रकार के कहे गये हैं— 1) किन्नर, 2) किंपुरुष, 3) उरग, 4) गन्धर्व देव, 5) यक्ष, 6) पर पक्ष को रोकने वाले राक्षस, 7) भूत और 8) महाशत्रुओं का नाश करने वाले पिशाच । ये आठ व्यन्तर देव तो प्रधान हैं और बेलंधर, पन्नग, सिद्ध आदि अनेक धुरंधर देव भी होते हैं। कोई-कोई व्यंतर देव तो कितनी ही कन्दराओं में, दरों में, विवरों में, और कितने ही व्यन्तरदेव कुलाचलों पर, मेरु पर्वत के उज्ज्वल शिखरों पर और श्रीयुक्त धवलगृहों में रहते हैं और कितने ही गगन, नदी, सरोवर, समुद्र में और कितने ही महाहर्म्य, स्वर्ण-तोरणों में, कितने ही द्वीपों, नन्दनवन की सीमाओं, तथा नगर, पट्टन, पुर एवं ग्रामों में निवास करते हैं। घत्ता– कितने ही सागर के तीर पर और कितने ही उत्तम देव पाण्डुक शिला पर, चैत्यों के शिखरों पर और
महापर्वतों के बिलों में निवास करते हैं। ।। 150 ।।
180 :: पासणाहचरिउ