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10/3 Pārswa's preachings on Srāvaka-Dharma (House-holders' code of conduct).
रविकित्ति राउ तहो सणेवि वत्त सिंहासणु मेल्लिवि पयइँ सत्त।। जाएवि जोडेवि करयल बेवि पणविउ भालयलु परिठवेवि।। वम्मादेविहु गमुष्मवासु
णिज्जिय पंचत्त जराभवासु ।। उद्वेविणु पुणु साहणसमेउ
गउ तहिँ जहिँ णिवसइ देव देउ।। गय झत्ति पहावइ जणणियाए
सहु समवसरणि सुहजणणियाए।। णरणाहँ पणविवि थुइ करिवि तमु हरिवि सकोट्टईं वइसरिवि।। जिण पुच्छिउ सावय-धम्म-भेउ तं सुणिवि भणइ तित्थयरु देउ।। सुणि भणमि गिहत्थओ तणउ धम्मु सग्गापवग्ग पविइण्ण सम्मु।। संकाइ सयल दोसइँ मुएवि
मिच्छत्तभाउ तह परिहरेवि।। सम्मत्तरयणभूसण धरेवि
ससियर-समु तियरणु थिरु करेवि।।
घत्ता-णिदूसणु सरदूसणु मणिकरिंदु संदाणइ।
णिरवेक्खउ जयलक्खउ जो सयरायरु जाणइ।। 168 ||
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पार्श्व-प्रभु का श्रावक-धर्म पर प्रवचनरविकीर्ति राजा ने वनपाल की जब यह सूचना सुनी, तब वह अपना सिंहासन छोड़ कर, सात पैड आगे बढ़कर दोनों करतल जोड़ कर तथा उन्हें अपने भालतल पर स्थापित कर उन्हें (परोक्ष-) प्रणाम किया।
श्री वामादेवी के गर्भ से उत्पन्न मृत्यु, जन्म और जरा को जीतने वाले उन प्रभु को दूर से ही नमस्कार किया। पुनः साधन (परिकर) सहित, उठकर वह वहाँ गया, जहाँ देवाधिदेव विराजमान थे। पुन शीघ्र ही प्रभावती भी सुख की जननी अपनी माता के साथ समवशरण में गई। नरनाथ ने पार्श्व प्रभु को प्रणामकर उनकी स्तुति की और मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को दूर कर वह अपने कोठे में जा बैठा। बैठकर उसने जिनेन्द्र से श्रावक धर्म का भेद पूछा__राजा रविकीर्ति के प्रश्न को सुन कर तीर्थदेव ने कहा- सुनो, मैं गृहस्थ सम्बन्धी उस धर्म को कहता हूँ जो स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाला है। शंकादि सकल (25) दोषों को छोड़कर तथा मिथ्यात्वभाव का परिहार कर सम्यक्त्व रूपी रत्नाभूषण को धारण कर पुनः चन्द्रसमान तीनों करणों (मन, वचन, काय) को स्थिर करना चाहिए।
घत्ता--जो निर्दोष (दोष रहित) सरदूषण (स्मर को दूर भगाने वाले) मन रूपी करीन्द्र को (गज) बाँधने वाले,
निरपेक्ष (इस लोक तथा परलोक की आकांक्षा रहित), विजय लक्षण वाले, (रागद्वेष को जीतने के कारण जय शब्द से जाने जाने वाले), तथा चराचर सबको जानने वाले हैं-|| 168।
पासणाहचरिउ :: 199