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10/16 Preachings regarding self restraint.
तह विहु मुणिणाहँ धम्म सवण अणुकंपा विरयंत जणाहँ जिह णयण-विहीणहँ वण्ण-भेउ तिह जाणि धम्म-कह णिदुराइँ णामेण धम्मु सामण्णु भव्व आगमभेएणाचरणु भिण्णु जिह लोय कणय-मणि-थी णराहँ तिह जाणि धम्मु धम्महँ महंतु जो जारिसु विरयइ धम्मु-कम्मु पर पवियारिवि दिढ-कम्म-पासु
णियमेण करेवी पाव-समण।। भवभमण दुक्ख-दुक्खिय मणाहँ ।। जिम बाहिरहँ णिप्फलु होइ गेउ।। मोहोदय कम्म गरुअहँ णराहँ।। सयलागमेसु परिचत्त गव्व।। बुद्धिए किउ आयरिएहिँ चिण्णु ।। सयणासण-हरि-करि-तरुवराहँ।। अंतरु वज्जरइ महामहंतु ।। सो तारिसु भुंजइ वप्प सम्मु ।। पायड ण जीउ सिव-णयर-वास।।
घत्ता— णिरसिय भय असुहरदय संजमु जहि भाविज्जइ।
मुणि-णिंदिय-पंचिंदिय णिग्गहु जहि विरइज्जइ।। 181 ।।
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संयम-धर्म के ग्रहण करने का उपदेशहे राजन्, मुनिनाथ द्वारा पापों का शमन करने वाले धर्म का श्रवण नियम से करना चाहिए और संसार के परिभ्रमण के दुखों से पीड़ित मन वाले मनुष्यों पर अनुकम्पा करना चाहिए।
जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति के लिये नाटक का भेद और बहिरे व्यक्ति के लिये गीत-संगीत निष्फल होते हैं, ठीक उसी प्रकार निष्ठुर मोहान्ध और कर्मों से भारी मनुष्यों के लिये धर्मकथा भी निष्फल ही होती है, ऐसा जानो।
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गर्व के त्यागी हे भव्य, यद्यपि समस्त आगमों में श्रामण्य धर्म शब्द सामान्य है किन्तु आगम-भेद से उसके आचरण भिन्न-भिन्न हैं। वह विवेक-बद्धि कत है और आचार्यों ने उन्हें चीन्हा-पहिचाना है।
जिस प्रकार लोक में कनक (स्वर्ण) मणि, स्त्री, मनुष्य, शयन, आसन, घोड़े, हाथी और वृक्षों में अन्तर है, उसी प्रकार धर्म-धर्म में भी महान् अन्तर कहा गया है।
अतः हे भव्य, जो जैसा धर्म-कर्म करता है, वह वैसा ही सुख भी भोगता है। किन्तु दृढ कर्मपाश को काटकर वह जीव शिवनगर (मोक्ष) का वास प्राप्त नहीं कर सकता।
घत्ता- अतः हे भव्य, भय को निरस्त कर, समस्त प्राणियों पर दया कर, जैसे भी हो, संयम का पालन कर और
मुनियों द्वारा निन्दित पाँचों इन्द्रियों का निग्रह कर।। 181 ।।
212:: पासणाहचरिउ