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11/3 The pomp and grandour of Jambudwīpa and Bharata Kşetra including Suramya Country.
तहो मज्झि अस्थि कंचणगिरिंदु जिण-ण्हवणु करइ जसु सिरि सुरिंदु ।। तहो दाहिण भारहवरिसु अत्थि जहिँ वणि भमंति सच्छंद हत्थि।। तहिँ सग्गसमाणु सुरम्मु देसु णिवसइ अहंगु पवरप्पवेसु ।। जहिँ पामरेहिँ पुंडिच्छु दंडु
खंडिज्जहिँ मुणिहिँ व मयणकंडु ।। जहिँ सहइ सालि बहुफलभरेण णय-सविणय जणया इव भरेण।। जहिँ रायहंस कीलहिँ सरेसु चंचुए विसुलित स सिरिहरेसु ।। जहिँ सिउ चरंतु गोहणु वणेसु हंसोहु व सहइ णहंगणेसु ।। जहिँ पुण्णालि व सरि पिव-समीउ सच्छंदु जति परिहरिवि दीउ।। जहिँ जणरंजण णंदणवणाइँ
उक्कोविय मयरद्वय कणा।। जहिँ पहिय णिम्महिय महिय मिल्लि पेक्खेविणु पसरियदक्खवेल्लि।। आलुंचिवि तहे दक्खहे फलाइँ आसाएवि चोचुब्भव-जलाई।।
घत्ता- णंदण तरु फुल्लहँ अइरपफुल्लहँ सत्थरेसु वियलियसम।
सोवंति सइत्तइँ पसरियगत्तइँ भोयभूमि मणुओवम।। 187 ।।
___11/3 जम्बूद्वीप एवं भरत-क्षेत्र तथा सुरम्य-देश की समृद्धि का मनोहारी वर्णन उसी जम्बूद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत स्थित है, जिसके शिखर पर सुरेन्द्र जिनेन्द्र का न्हवन किया करता है।
उसकी दक्षिण दिशा में भारतवर्ष नामका एक क्षेत्र है, जहाँ के गहन वनों में हाथियों के झुण्ड स्वच्छन्द रूप से विचरते रहते हैं।
उसी भारतवर्ष में स्वर्ग के समान एक सुरम्य नामका देश है, जो अभंग तथा उत्तम प्रदेशों वाला है, जहाँ पामरजनों (समृद्ध कृषक गणों) द्वारा पौंडा (इक्षु) दण्डों की खेती काटी जाती है, जो इस प्रकार प्रतीत होती है, मानों मुनिवरों द्वारा कामदेव के वाणों को ही खण्डित किया जा रहा हो। जहाँ शालि-धान्य के खेत फलों एवं फलियों के भार से झुके हुए उसी प्रकार सुशोभित रहते हैं, जिस प्रकार कि नय-नीति से विनीत पुत्र से पिता। जहाँ श्रीगहों (लक्ष्मीगहा) क समान सरावसम अपना-अ
के समान सरोवरों में अपनी-अपनी चोंचों में कमलनाल के विसकन्दों को दबाए हुए राजहंस क्रीड़ाएँ किया करते हैं, जहाँ के वन्य-चारागाहों में धवल-गोधन चरता रहता है। वह उसी प्रकार सुशोभित रहता है जैसे नभांगन में हंस-समूह सुशोभित होता है।
जहाँ पंश्चलियाँ (अभिसारिकाएँ) दीपक छोडकर स्वच्छन्द रूप से (छिप-छिपकर) अपने प्रेमियों से मिलने के लिये उसी प्रकार जाती रहती हैं, जिस प्रकार नदियाँ समद्र की ओर भागती हैं। जहाँ प्रजाजनों के मनोरंजन के लिये सघन नन्दनवन हैं, जो कि मकरध्वज (कामदेव) के वाणों को उत्तेजित करते रहते हैं। जहाँ पथिक जन निर्मथित मही (मढें) को छोड़कर वहीं पर पसरी हुई द्राक्षा-लता को देखकर उसमें से द्राक्षाफलों को चुन-चुन कर खाते रहते हैं तथा डाभ (नारियल) से उत्पन्न जल को पी-पीकर प्यास बुझाकर सन्तुष्ट रहते हैं।
घत्ता- और अतिशय रूप से प्रफुल्लित नन्दन वन के वृक्षों के पुष्पों द्वारा निर्मित विस्तरों पर अपनी प्रेमिकाओं के
साथ शरीर फैलाकर सोते रहते हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों वे भोगभूमि के श्रेष्ठ मनुष्य ही हों।। 187 ।।
पासणाहचरिउ :: 219