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10/19 King Prabhañjana accepts asceticism. पत्तेवि णरत्तणि दुल्लहु होइ कम्मावणि जम्मणु भणइ जोइ।। पत्तेवि कम्मभूमीए जम्मि
अज्जउलु होइ दुल्लहु णरम्मि।। लद्धेवि अज्जउलि जिणु चवेइ णीरोयत्तणु दुल्लहु हवेइ।। णीरोयत्तणे लद्धेवि धम्मि
मइ रमइ ण जिणमुह णिग्गयम्मि।। जइ करइ धम्मु दियकम्मरुक्खु तह विहु परिपालिणि होइ दुक्खु ।। जिह बिरला चंदण कप्परुक्ख
हय दाह णिवारिय चित्तअक्खु ।। तिह विरला महियलि भवियणाहँ जिणधम्मकरण उच्छुअ मणाहँ।। जिह सरि-सरि कुमुअहँ होइ जम्मु किं तह सयवत्त होहणि उप्पम्मु।। सयवत्तसरिसु जिणणाह धम्म
कुमुअ समु इयरु कयमरण जम्मु ।। जे अरुहमग्गि लग्गति जीव
ते होंति मोक्ख-णयरम्मि दीव।। जे इयरमम्गु सेवंति दीण
ते भवि भमंति दुह सयह खीण।। जिण-वयणु पहंजणु सुणिवि सव्वु दिक्खहे ठिउ मेल्लिवि रज्ज-दबु।। घत्ता- उठेविण पणवेविण पासहु णट्टल तुल्लउ।
णय-विणयहिँ सतियरणहिँ सिरिहर सरिस मुहल्लउ।। 184||
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प्रभंजन राजा का दीक्षा लेनायोगियों का कथन है कि- दुर्लभ नरजन्म प्राप्त कर लेने पर भी, कर्मभूमि-क्षेत्र में उसे जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है। कर्मभूमि में जन्म प्राप्त कर लेने पर भी आर्यकुल पाना दुर्लभ है। जिनेन्द्र कहते हैं, कि आर्यकुल में जन्म प्राप्त कर लेने पर भी निरोग शरीर पाना दुर्लभ है। निरोग शरीर प्राप्त कर लेने पर भी जिनमुख-निर्गत धर्म में मति का रमण होना दुर्लभ है। यदि कर्मरूपी वृक्ष को खण्डित करने वाला धर्म धारण भी कर ले, तो भी उसके परिपालन में कष्ट होता है। ___ जिस प्रकार दाह को मिटाने वाले तथा हृदय तथा नेत्रों को शीतलता प्रदान करने वाले चन्दन वृक्ष एवं कल्पवृक्ष बिरले ही होते हैं, उसी प्रकार जिनभाषित धर्म के करने में उत्सुक मन वाले भव्यजन इस पृथिवीतल पर बिरले ही होते हैं। जिस प्रकार हर सामान्य सरोवर में कुमुदों की उत्पत्ति होती है, क्या उनमें अनुपम शतदल कमल-समूह भी आसानी से उत्पन्न हो सकता है?
जिननाथ द्वारा भाषित धर्म शतदल-कमल के सदृश होता है जब कि जन्म, जरा एवं मरण को देने वाले इतर धर्म सामान्य कुमुद के समान होते हैं, जो जीव अरिहन्तों के मार्ग में लगते हैं, वे मोक्षरूपी नगर में दीपक के समान होते हैं। जो बेचारे अन्य मार्ग का सेवन करते हैं, वे जीव सैकड़ों दुःखों से क्षीण होते हुए संसार में भटकते रहते हैं।
राजा प्रभंजन ने जब जिनेन्द्र का यह समस्त उपदेश सुना, तो वह अपना राज्य-भार छोड़कर दीक्षा लेने हेतु उन प्रभु के सम्मुख जा बैठाघत्ता- उस राजा प्रभंजन ने उठकर अत्यन्त विनयपूर्वक साहू नट्टल के समान तथा विबुध श्रीधर (कवि) के समान
ही पार्श्वप्रभु को नमस्कार किया। उसका मुखकमल खिल उठा। विनम्रतापूर्वक नतमस्तक होकर त्रिकरणशुद्धि पूर्वक उस राजा ने मुनि-दीक्षा धारण कर ली।। 184 ।।
पासणाहचरिउ :: 215