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वहमी संधी
10/1 The devotees pray Lord Pārswa on the pious occasion of his wandring (Vihāra) for preaching purposes. Pārswa reaches Nandana-vaná situated in the out side of the town of Kusasthala.
घत्ता- जण सुहयरु सररुहयरु दयपोमिणिं पोमायरु।
परमेसरु जयणेसरु सयल भविय पोमायरु।। छ।। हयसेण सरीरउ रय-विहीणु
पय-पंकय णविय महा महीणु।। वज्जिय बज्झब्तरपसंगु
चउतीसातिसयसिरीपसंग।। दुत्तरसंसारसमुद्दसेउ
तियसिंद-विंद सयविहिय सेउ।। तेवीसमु जिणवरु अरुह देउ
तित्थयरु वित्थरिय जस णिदेउ।। लोयहो उब्मासिय तिजयभेउ
दुव्वार मारवाणहिँ अभेउ।। चउविहकसाय-विसि वइणतेउ
णवतरणि-किरण-संकास-तेउ।। विज्जाहर विज्जिय चामरोहु
विणिवारिय असुहर मण-विरोह।। परिहरिय सपरियण लच्छि मोहु केवल-किरणावलि हय-तमोहु।। विहरंतउ धरणीयलि विसाले
सरि सरवरतीरए सारसाले।। मेल्लंतउ पुर-णयरायराइँ
अणवरउ णरेसर मायराइँ।। घत्ता- सावरहिउ णिय परहिउ पत्तू कसत्थल णंदणे। पियसद्दहिँ अइभद्दहिँ मयरद्धय सिरिणंदणे।। 166 ||
10/1 भक्त जनों द्वारा पार्श्व की स्तुति एवं पार्व-विहार :
वे कुशस्थल नगर के बाहर स्थित नन्दन-वन में पहुँचते हैंघत्ता- (कवि-वन्दना-) समस्त जनों के लिये सुखप्रदान करने वाले, काम-विराधक, दयारूपी पद्मिनी के लिये
पद्माकर (सरोवर) के समान, जगत् को प्रकाशित करने के लिये सूर्य के समान, सकल भव्यजनों के लिये
मोक्षरूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाले हे परमेश्वर, आपकी जय हो। (छ) हयसेन के पुत्र श्री पार्श्वप्रभु रज अर्थात् घातिया कर्मों से विहीन, सम्राटों द्वारा नमस्कृत चरण-कमल वाले, बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से वर्जित, चौंतीस अतिशयरूपी लक्ष्मी से युक्त, दुस्तर संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये सेतु समान, सैकड़ों त्रिदशेन्द्रों द्वारा सेवित, तेईसवें तीर्थंकर अरिहन्त जिनवर देव, तीर्थ के प्रवर्तक, विस्तृत यश वाले, तीनों लोकों के भेद को उद्भाषित करने वाले, काम के दुर्वार-वाणों से अभेद्य, चतुर्विध कषायरूपी सों के लिये गरुड़ के समान, नवीन सूर्य की किरणों के समान तेज पुंज वाले, विद्याधरों द्वारा जिन पर चामर-समूह दुराये जाते हैं, जिन्होंने असुरपति मेघमाली के बैर का निवारण किया है, प्राणियों के मन का विरोध मिटाने वाले, परिजनों और लक्ष्मी के मोह के त्यागी, केवलज्ञान की किरणावलि (प्रकाश) से तमोघ (अज्ञानान्धकार-समूह) को नाश करने वाले वे पार्श्वदेव सारसों द्वारा सुशोभित नदी, सरोवरों के तीर पार करते हुए पुर, नगर एवं आकरों को छोड़ते हुये, सज्जन पुरुषों से परिपूर्ण, नरेश्वरों द्वारा पोषित इस विशाल धरणीतल पर विहार करने लगे। घत्ता- शाप (दुर्भावना) रहित, स्व-पर का हित करने वाले वे पार्श्व प्रभु विहार करते हुए कुशस्थल नगर
के अतिभद्र (श्रेष्ठ) पिक (कोकिल) के शब्दों से काम-लक्ष्मी को आनंदित करने वाले नंदनवन में जा पहुँचे।। 166 ।।
पासणाहचरिउ :: 197