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Four Shiksavratas (Disciplinary vows) मज्झवि खमंतु णिम्मलमणासु ।। थुइ विरइज्जर जिय- सरकणासु ।। णिरु तिण्णिवार रंजिय मणेण । । किज्जइ उववासु महाणिवासु ।। पुज्जेविणु पणविवि मुणिवराइँ ।। अवरेवि विभाव संजणिय सोस ।। आहारदा दिज्जइ भरेण || विरइज्जइ भोयणु णउ णरिंद ।। अणवरउ रइय जर मरण- जम्मु ।। सल्लेहण किज्जइ सुह-पसंगु ।।
Preachings continued.
सव्वहो खमामि असुहरगणासु उ भणेवि मुवि कम्मइँ जिणासु एक्कहि दिणि सुद्ध तियरणेण अट्ठमि चउदिसि सिवसुह णिवासु जाएवि जिणमंदिरे जिणवराइँ वज्जिवि संकाइ असेस दोस घरदारपत्त पत्तहो णरेण अत्थमिय दिवायरे कित्तिकंद विणिवारिउ दिणि मेहुणहु कम्मु अवसाणे विवज्जिवि सव्व संगु
घत्ता - आराहण सिवसुह साहण चउविह आराहिज्जइ ।
चित्तें सुपवि पाण- चाउ पुणु किज्जइ । । 172 ।।
10/7 चार शिक्षाव्रत (श्रावक-धर्म-प्रवचन जारी) -
मैं सभी जीवधारियों के दोषों को क्षमा करता हूँ। सभी जीव निर्मल मन से मुझे भी क्षमा करें, ऐसा कहकर क्रिया-कर्मों को छोड़कर, स्मर के वाणों को जीतने वाले जिनेन्द्र की स्तुति करना चाहिए और शुद्ध त्रिकरण पूर्वक प्रतिदिन प्रसन्नधर्मानुरागी मन से तीन बार ध्यान करना चाहिए। (यह सामायिक नाम का प्रथम शिक्षाव्रत है।)
अष्टमी - चतुर्दशी ये दोनों ही पर्व शिव-सुख के महानिवास स्थल हैं। इन दोनों पर्वों में महा गुणों के निवासभूत उपवास करना चाहिए। जिनमंदिर में जाकर जिनवरों की पूजाकर, मुनिवरों को प्रणाम कर, शंका आदि संपूर्ण दोषों को त्यागकर, शोष (दुःख) को उत्पन्न करने वाले विकारभाव (विविध विभावों) को छोड़कर उपवास करना चाहिए । (यह प्रोषधोपवास नाम का द्वितीय शिक्षाव्रत है ।)
घर के द्वार पर आए सत्पात्रों को अपनी शक्तिभर आहार आदि दान देना चाहिए। सूर्य के अस्त होने पर हे कीर्तिकंद नरेन्द्र । भोजन नहीं करना चाहिए। (यह अतिथि - ) संविभाग नाम का तृतीय शिक्षाव्रत है ।
दिन में मैथुन -कर्म का त्याग करो क्योंकि वह (मैथुनकर्म) जरा, मरण एवं जन्म की रचना करता है । (यह भी रात्रि - भोजन त्याग में सम्मिलित ।। अवसान अर्थात् आयु के अन्त में समस्त परिग्रहों का त्यागकर सुख की प्रसंगभूत सल्लेखना (समाधिमरण) धारण करना चाहिए। (यह सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत है ) ।
घत्ता - शिव-सुख का साधन ही आराधना है। वह आराधना चार प्रकार की है। मन को पवित्र तथा स्थिर करके प्राण त्याग करना चाहिए। (यह संन्यास - समाधिमरण व्रत है ) ।। 172।।
पासणाहचरिउ :: 203