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10/6 Preachings continued. Discourse on five Aņuvratas (i.g. five vows-primary abstenation from the five sins) and
on three Gunavratas (Multiplicative vows) described.
म कंदरासि दिढ-दिट्ठि-मुट्ठि संधाणु वाणु बेइंदियादि परिहरहिँ तेम बोल्लियइ सुहंकरु तेम सच्चु परदव् णिरिक्खिवि णियमणेण परतिय पेक्खेवि परमत्थु जाण परमाणउ धण-कण-कंचणहँ विरयहि संकोडेवि लोभाउ एयइँ पंचाणुव्वयइँ जेम दिस-देसाणत्थहँ विरइ भव्व
तह तरु-कुसुमइँ रिउ कंठ-पासि ।। विरस वि म मारहि जीव जाणु।। संभवइ पाउ ण मणावि जेम।। दूसियइ जिणहो णउ जेम तच्चु ।। चिंतिज्जइ तिणु जह भवियणेण।। मेल्लंति माय-बहिणी-समाण।। घर-दासि-दास-वसणासणाहँ।। भवियण पयडहिँ णिम्मल-सहाउ।। णिसुणज्जहि णिव गुणवयइँ तेम।। विरयंति समणे परिहरिय गव्व।।
घत्ता- सुहभोयहँ उवभोयहँ किज्जइ संख णरेसर।
एव्वहिँ पुणु णिहुअउ सुणु सिक्खावय कुलणेसर।। 171 ।।
10/6 पाँच अणुव्रतों एवं तीन गुणव्रतों का वर्णन (श्रावक-धर्म-प्रवचन जारी)शाक के साथ कंदमूल राशि को मत खाओ तथा वृक्षों के पुष्पों को, जो कि अपने लिये रिपु के समान (अनिष्ट) है, उन्हें अपने कण्ठ का पाश मत बनाओ। दृढ़ दृष्टि, मुष्टि एवं बाण-संधान, विरस को भी जीव मानकर मत मारो। उसी प्रकार द्वीन्द्रियादि जीवों को भी मत मारो जिससे कि थोड़ा सा भी पाप लगे। (यही (1) अहिंसाणुव्रत है)। __ जो शुभ करने वाले हों ऐसे सत्य वचन बोलो, जिससे जिनेन्द्र का तत्व दूषित न हो। (यही (2) सत्याणुव्रत है)। पर-द्रव्य-धन को देखकर अपने मन में उसे तृण के समान समझो, (क्योंकि भव्यजन तृण को नहीं ग्रहण करते।) (यही (3) अचौर्याणुव्रत है) परस्त्री को देखकर परमार्थ से उसे माता, बहिन, और पुत्री के समान जानकर छोड़ो। (यही (4) ब्रह्मचर्याणुव्रत है।)
धन, कण, कंचन, घर, दासी, दास, वसन, (वस्त्र) आपण, आदि परिग्रह का तथा लोभ-भाव का संकोच कर ही प्रमाण करो। (यही (5) परिग्रह-परिमाणाणुव्रत है)। भव्यजन इसी प्रकार अपना निर्मल स्वभाव प्रगट करें। __हे राजन्, जैसे आपने ये पाँच अणुव्रत सुनें, उसी प्रकार अब गुणव्रतों को भी सुनो। हे भव्यजन, दिशा, देश एवं अनर्थ का त्याग करो। ये गुणव्रत कहलाते हैं। अपने मन से गर्व का त्याग करो। मैं व्रती श्रमण बन गया, ऐसा मान-अहंकार छोड़ो।
घत्ता— हे नरेश्वर, शुभ भोगों एवं उपभोगों की संख्या का प्रमाण करो। अब आगे हे कुल-सूर्य, एकाग्र मन से
शिक्षाव्रतों को सुनो।। 171 ||
202 :: पासणाहचरिउ