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Preachings on House - Holders' code of conduct.
केवल लच्छी परिरंभुयासु अरिहंतहो तो पयपंकयाइँ जह-जायलिंग लच्छीहरासु तिक्काल पवंदिय जिणवरासु आएसु पडिच्छिज्जइ जवेण विरइज्जइ रइगयहिँ सधम्मे णिग्गंथहो परणिट्ठाणु होइ एरिसउ होइ लक्खणु णिरुत्तु सम्मत पहावें सुरणाहँ पुज्जिज्जइ रु तिहुअणे विमोक्खु
तिगुणिय छद्दोस विबज्जियासु । । पणविज्जहिँ णिरु णिप्पंकयाइँ ।। थिरभाव णिहय धरणीहरासु ।। परिहरिय परिग्गह मुणि वरासु ।। गुणरयण थुणिज्जहि कलरवेण ।। णिक्खत्तिय चिरकय असुह कम्मे || एरिसु वज्जरइ जिगिंदु जोइ ।। सम्मत्तहो जिणवइणा पउत्तु ।। संदोह निम्मल यरमणाहँ । । पुणु जाइ संजणिय परम सोक्खु ।।
घत्ता - गुणजुत्तहो सम्मत्तहो विवरीए मिच्छत्तं ।
भवसायरि असुहायरि पाडिज्जइ अक्खत्तं ।। 169 ||
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श्रावक-धर्म पर प्रवचन (जारी)
—जो केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का आलिंगन करने वाले हैं, जो अठारह प्रकार के दोषों से रहित हैं, उन्हें अरिहंतदेव कहते हैं। उनके निष्पंक (कर्ममल रहित) चरण-कमलों को निष्कम्प - रीति से प्रणाम करो ।
यथाजातलिंग (नग्न-दिगम्बरी वेष ) रूप लक्ष्मी (शोभा) के धारक, स्थिरभावों द्वारा कर्म रूपी पर्वतों को जीतने वाले, जिनवर की त्रिकाल वंदना करने वाले, परिग्रह के त्यागी, मुनिवरों (गुरु) को प्रणाम कर शीघ्र ही उनसे आदेश की प्रतीक्षा कर मधुर शब्दों से उन गुणरत्न गुरु की स्तुति करना चाहिए ।
200 :: पासणाहचरिउ
राग का त्याग करना चाहिए, पुराने अशुभ कर्मों को काटने वाले, स्वधर्म (निश्चय आत्म धर्म) को प्राप्त निर्ग्रन्थों को, जिन्हें जिनेन्द्र देव ने योगी भी कहा है, के प्रति परिनिष्ठा (श्रद्धान) रखना चाहिए, जिनपति ने इसे ही सम्यक्त्व का लक्षण कहा है।
सम्यक्त्व के प्रभाव से ही निर्मलतर मनवाला वह श्रावक देवगणों द्वारा भी पूजा जाता है। त्रिभुवन में ऐसा श्राव मानव मोक्ष को प्राप्त करता है और वहाँ परम सुख को उत्पन्न करता है।
घत्ता - गुण युक्त सम्यक्त्व का विपरीत श्रद्धान करना ही मिथ्यात्व है, जो कि भवसागर के दुःखों का आकर है। वह उसमें बेरोक-टोक पटक दिया जाता है ।। 169 ।।