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एक्कु अत्थि पंचूणउ छट्ठए सयल मिलिय चउरासी लक्खइँ
पंच जे बिल सत्तमि अइ-दुट्ठए।। होति विलहँ दरिसिय बहदुक्खइँ।।
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घत्ता- पढमए णारहयहँ देह पमाणु-पयासियउ।
धणु सत्त-ति-हत्थइँ-छंगुल जिणवर भासियउ ।। 147 ||
9/4 Descriptions of the age of inhabitants in Hell. एउ वि विउणु दुइज्जइ जाणित तंपि दूणु तिज्जइ वक्खाणिउ।। तं तिज्जए तं दूण चउत्थए
तंपि दुणु पंचमए महत्थए।। जं पंचमो तं दूणउ छट्ठए
तंपि दुण्णु सत्तमए महिट्ठए।। पढमए आउ एक्कु सायरु पुणु वीयए तिण्णि सत्त तिज्जए पुणु।। तुरियइँ दह पंचमि सत्तारह
छट्ठए मुणि दुगुणिए एयारह।। तह तिगुणिय एयारह सत्तमि
अलिउल-कज्जल-सरिस महत्तमि।। एउ परमाउस भासिउ देव्वहिँ
जिणवरेहँ आयण्णहि एव्वहिँ।। पढमए अहमु वि आउ पउत्तर
दह-सहसहिँ वरिसेहिँ विहत्तउ।। वीयए एक्कु जलहि (जि-जाणिज्जहि} तिज्जए तिणि म भंति करिज्जहि तुरियए सत्त समीरिय पंचमि
दह छट्ठए सत्तरह सत्तमि।। घत्ता- वावीस समुद्दहँ दुहु सहति तहिँ णारया।
पंचविहु णिरारिउ संढ महारण महि रया।। 148|| ऐसे सब कुल मिलाकर सातों नरकों में चौरासी लाख बिल हैं। घत्ता- प्रथम नरक में नारकियों के शरीर का प्रमाण सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल है, ऐसा जिन ने कहा है।। 147 ||
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नारकियों की आयु का वर्णनप्रथम नरक के शरीर का जो प्रमाण है, वही दुगुणा करने पर दूसरे नरक का जानो। इसी प्रकार तीसरे में दूसरे का दुगुणा, चौथे में तीसरे का दुगुणा, पाँचवें में चौथे का दुगुणा, छठे में पाँचवें का दुगुणा और सबसे बड़े सातवें में नरक में छठे का दुगुणा प्रमाण है।
प्रथम नरक में आयु का प्रमाण एक सागर (सागरोपम), दूसरे में तीन सागर, तीसरे में सात सागर, चौथे में दस हजार सागर, पांचवें में सत्रह सागर, छठे में ग्यारह से दुगुणे अर्थात बाईस सागर और भ्रमर अथवा काजल के समान छोर अंधकार से व्याप्त सातवें नरक में ग्यारह से तीन गुणा अर्थात तैंतीस सागर हैं। यह उत्कृष्ट आयु है, ऐसा जिनेन्द्र देवों ने कहा है। अब आगे पुनः सुनो-प्रथम नरक में (जघन्य) आयु दस हजार वर्ष की है। दूसरे में एक सागर, (की जानना चाहिए) तीसरे में तीन सागर की होती है, इसमें भ्रांति न करें, चौथे में सात सागर, पांचवें में दस सागर एवं छठे में सत्रह सागर की जघन्य आयु कही गई है। घत्ता- सातवें में बाईस सागर जघन्य आयु है। नरकों में रहते हुए नारकी लोग उक्त कथित आयु पर्यन्त कष्ट
भोगते रहते हैं। प्रथम नारकी लोग नपुंसक देह वाले होते हैं तथा वे सदा महायुद्ध में ही रत रहते हैं और पाँच प्रकार के दुःखों को सहन करते रहते हैं। ।। 148 ।।
178 :: पासणाहचरिउ