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रयण-पुरस्सर जाम चउत्थउ
तिब्बु दाहु तणु दहण समत्थउ।। पंचमे णरइ खराय व सीय
सेसहि वि हि भासिय अइसीयइँ।। एयहँ सत्तहँ जो पढमिल्लउ
सो भणियइ ति-भाय गुणिल्लउ।। पढम भाउ खर-पुहविह दे।
तित्थयरेण सयल सुर-सेवें।। परिसंखाइउ सोलह सहसहिँ
जहिँ णव-विह भावणसुर णिवसहिँ।। पत्ता- चउरासी सहसहिं वीयउ-भाउ पमाणिउ।
तहिं असुरकुमारहँ कुलु कीलहिँ जिण जाणिउ।। 146 ।।
9/3 Divisions and various conditions of Hellish souls described. तइय भाउ हणु-हण परिस
किंपि ण सुण्णइ विहिय विमद्दे।। जइ णारइयहिँ संगरु करिवउ
असिय-सहस जोयण परिसंखिउ।। पढम णरइ तेरह पत्थारहँ
णाणाविह बहु-दुह-वित्थारइँ।। वीयए एयारह तिज्जय पुणु
णव अक्खिय तुरियए सत्त जि सुणु।। पंचमे पंच तिण्णि छट्टउए मुणि सत्तमे एक्क जि भणइ महामुणि।। सव्वई मिलियइँ होति णवाहिय। फुडु चालीस जिणेसरे साहिय।। लक्खइ तीस विलह पहिलारए
वीयए पंच-वीस णारए।। तइयइ पण्णारह दह तुरियइँ
पंचमि तिण्णि महादुह भरियइँ।।
प्रथम रत्नप्रभा नरक से लेकर चौथे पंकप्रभा नरक तक शरीर के जलाने में समर्थ तीव्र दाह ही दाह व्याप्त है। पाँचवे नरक में तीव्र गर्मी और वैसी ही ठंडक भी व्याप्त है। शेष दो नरकों में अति शीत व्याप्त है।
उक्त सातों नरकों में से प्रथम जो रत्नप्रभा है, गुणज्ञों ने उसके तीन भाग कहे हैं। प्रथम भाग खरपृथिवी है. ऐसा सकल देवों द्वारा पूजनीय तीर्थकरों ने कहा है। यह खरभाग सोलह हजार योजन प्रमाण का है, जहाँ नौ प्रकार के भवनवासी देव निवास करते हैं। घत्ता- दूसरा भाग चौरासी हजार योजन प्रमाण है। वहाँ असुरकुमार देवों का कुल क्रीडा करता हुआ निवास करता है, ऐसा जिनेन्द्र जानते हैं।। 146 ।।
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नरक-वर्णन (जारी)-उस प्रथम नरक का तृतीय भाग 'मारो मारो' के शब्दों से ऐसा परिपूर्ण है कि वहाँ परस्पर की पीड़ा-कराह के कारण कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। जहाँ के नारकी जीव आपस में युद्ध ही करना चाहते हैं। उसका प्रमाण अस्सी हजार योजन है।
प्रथम नरक में तेरह प्रस्तार हैं, जिनमें नाना प्रकार के अनेक दुःखों का विस्तार है। दूसरे में ग्यारह पुनः तीसरे में नौ कहे गये हैं और भी सनो। चौथे में सात प्रस्तार हैं. ऐसा महामनियों ने कहा है। जिनेन्द्र द्वारा कथित ये सब कल मिलाकर नौ अधिक चालीस (उनचास) प्रस्तार हैं। प्रथम नरक में तीस लाख बिल हैं। दसरे नरक में लाख, तीसरे में पंद्रह लाख और चौथे में दस लाख बिल हैं। महादुःखों से भरे पांचवें नरक में तीन लाख, छठे में पांच कम एक लाख तथा अति दुष्ट सातवें नरक में केवल पांच ही बिल हैं जिनमें दुःख ही दुःख दिखाई पड़ते हैं,
पासणाहचरिउ :: 177