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9/12 The range of sight of different celestial Lords and other description.
पुणु उप्परिम अग्ग जुअलामर पुणु चउसग्गि सुराहिव जाणहिँ उप्परि सग्गामर राणा पुणु चउसग्ग सुराहिव पेक्खहिँ छट्ठी-महि गेवज्ज णिवासिय तिजयणाडि पंचोत्तर बुज्झहिँ एउ अहोगइ-णाणु सुरिंदहँ उद्धु णाणु सविमाण पमाणउ जो तउ विरयंतउ सेवइ वणु सो जायइ भावण भवणासुरु जे तावस वणि ठिय सिउ झायहिँ जे विरयहिँ उत्तम सावय-वउ उप्परि जंति ण समणु मुएविणु जिणवर तव-ताविय गेवज्जहिँ
विज्जी णरयभूमि चल-चामर ।। तिज्जी णरयभूमि वक्खाणहिँ।। णरय चउत्थावणि गुण जाणा।। णरयहो पंचमभूमि समक्खहिँ।। सत्तमि महि अणुदिसु अमयासिय।। अवहिणाण णयणेण समुज्झहिँ।। णिहिलहँ णविय जियारिजिणंदहँ।। सव्वसुरिंदहँ सव्व समाणउ।। मणसिय विसय-कसाय णिहयमणु।। अह वितरु तणु भूसणु भासुरु।। सुठु भाव ते जोइसि जायहिँ।। ते पावहिँ अच्चुअ-सुरवर-पउ ।। भवेयर जिण-लिंगु धरेविणु।। मंद-कसाय-सवण उप्पज्जहँ।।
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घत्ता- जे भव्व सुहासय रयणत्तयहर मुणिवर।
अणुदिस पंचोत्तर मज्झे होंति ते सुरवर ।। 156 ।।
9/12 विविध प्रकार के देवों की दृष्टि का प्रसार कहाँ-कहाँ तक? तथा अन्य वर्णनदो देवलोकों के बाद चँवर ढुराने वाले अगले चार देवलोकों के निवासी देवता गण दूसरे नरक तक, उसके बाद चार देवलोकों वाले देव तीसरे नरक तक जानते हैं। उसके बाद चार देवलोकों वाले देव चौथे नरक तक जानते हैं ऐसा गुणज्ञों ने जाना है। पुनः पांचवें नरक तक अगले चार स्वर्ग वाले सुराधिप देखते हैं। ग्रैवेयकवासी छठे और सातवें नरक तक, पाँच अनुदिश एवं अनुत्तर विमानवासी देव तिजयणाडि तक अपने अवधिज्ञान रूपी नेत्रों से देखते हैं। जितारि जिनेन्द्र को नमस्कार कर वे सुरेन्द्र अधोगति वालों को अपने अवधिज्ञान से जानते हैं। परंतु सभी देव ऊर्ध्वगति में अपने-अपने विमान की ध्वजा तक ही देख पाते हैं। सभी देवों का अवधि ज्ञान एक समान है।
जो विषय-कषाय पर विजय पाते हैं, मन का दमन करते हैं वन में जाकर तपस्या करते हैं, वे अपने भावों के अनुसार सुंदर भास्वर वेश वाले भवनवासी अथवा व्यन्तर देव होते हैं और जो वन में बैठकर केवल मोक्ष का ध्यान करते हैं, वे शुभ भावों के कारण ज्योतिषी देव होते हैं।
जो उत्तम श्रावक व्रत का पालन करते हैं वे अच्युत स्वर्ग का पद पाते हैं। (उत्तम) श्रमण को छोड़कर भव्येतर उसके आगे नहीं जा सकता। जिन-वेष धारण कर कठोर तपस्या करने वाला श्रमण ग्रैवेयक-स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
घत्ता- हे भव्य, शुभाशय वाले जो रत्नत्रयधारी मुनिवर हैं, वे अनुदिश तथा पंचोत्तर विमानों में उत्तम देव होते
हैं। ।। 156 ।।
186 :: पासणाहचरित