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परमेसरु पुणु जो पासु देउ जें बुज्झिउ सयलु वि लोयमग्गु तेवीसमु जो तित्थयर देउ । जो दूरुज्झिवि संसारु भारु जो परमु परंपरु मोक्खगामि
सुरगिरिहिँ पत्तु सलिलाहिसेउ।। जसु चरणहिँ तियसाहिवइ लग्गु ।। अहणिसु णरिंद-णाइंद घेउ।। तवसिरि संविउ णिम्महि वि मारु।। पयणिय सुह सिद्धि पुरंधि सामि।।
घत्ता– सो सोय णह जुत्तउ होइ निरुत्तउ तुह तं वयणु सुणेविणु।
णियमणि परिभावेविणु हियवउ देविणु मेल्लिउ सोउ मुणेविणु।। 112 ||
6/18 Figurative description of Loud weeping of mother Vāmādevi
at the time of separation of her dearest son. परमेसरि णिवसइ वम्म जेत्थु
संपत्तु जंतु रविकित्ति तेत्थु।। ससहोयरि सज्झ स भरिय गत्तु
लज्जए परिहरियउ मलिणवत्त।। पणवेप्पिणु पय वज्जरिय वत्त
छडु वणे रणे मंदिरे जेम वित्त।। ता तक्खणे णिवडिय वम्मदेवि
महियले थणजअलउ करहिं लेवि।।
कर लिया है, जिनके चरणों में इन्द्र भी नत मस्तक रहते हैं, जो तेईसवें तीर्थकर देव हैं, जो अहर्निश देवेन्द्रों एवं नागेन्द्रों के आराध्य हैं, जिन्होंने संसार के भार को दूर से ही छोड़ दिया है, जो मन्मथ का मन्थन कर तपश्री में संस्थित हैं, जो परम श्रेष्ठ हैं, परम्पर हैं, मोक्षगामी हैं और सुख की सिद्धि रूप रमणी-पुरन्ध्री के स्वामी हैं।
घत्ता- अतः ऐसे पुत्र का शोक करना निश्चय ही आपके लिये उचित नहीं। मन्त्री के इन हितावह वचनों को सुनकर
अपने मन में उनका अनुभव कर राजा हयसेन ने भी शोक करना छोड़ दिया। (112)
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प्रिय पुत्र-वियोग में माता वामादेवी का करुण-क्रन्दन(राजभवन में ही-) चलते-चलते राजा रविकीर्ति वहाँ पहुँचा, जहाँ परमेश्वरी वामादेवी निवास करती थीं। वह अपनी सहोदरी-बहिन के दुख से पहले से ही भरा हुआ था। लज्जा से वह खोया-खोया हुआ तथा म्लान-मुख था। उसने उसके चरणों में प्रणाम किया और तत्काल ही रण से लेकर कुशस्थल के भवन में जाने तथा वहां से भीमवन में जाने सम्बन्धी कुमार पार्श्व का समस्त वृत्तान्त जैसे ही उसे कहा, तभी वह तत्काल ही वक्षस्थल पर हाथ ठोकती हुई धरती पर गिर पड़ी और हाय पुत्र, हाय-पुत्र कहती हुई मूर्छित हो गई। उसके वस्त्र गिर गये और शरीर चेतनाशून्य हो गया।
इसी बीच में कोई दासी तो चन्दन का लेप करने लगी और कोई दौड़ी-दौड़ी आकर शीतल वायु हांकने लगी। कोई दौड़कर जल का सिंचन करने लगी और कोई विजना (पंखा) झलने लगी। जैसे तैसे जब वह होश में आकर उठी, तो अपने आंसुओं से महीतल को भरने लगी। वह पुकार-पुकार कर कहने लगी कि हाय पुत्र, तेरा मनोज्ञ मुख अब कैसे देख पाऊँगी?
पासणाहचरिउ :: 131