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घत्ता- तो वि णाय-णरामर मणहरहो रोमि वि ण दुविह-तव-सिरिहरहो।
कंपिय सिरिपासजिणेसरहो णट्टलु-मण-पयरुह णेसरहो।। 132 ||
Colophon इय सिरि-पासचरित्तं रइयं बुह सिरिहरेण गुणभरियं । अणुमण्णिय मणोज्जं णट्टल-णामेण भव्वेण।।
भीमाडइ वणमज्झे कमठासुर-विहिय भीम उवसग्गे। पास-परीसह सहणे सत्तमी संधी परिसमत्तो।। छ।। संधी 7
Blessings to Nattala Sāhu, the inspirer यस्य स्वर्गपतेपुरः सुरगुरु ते सदा सत्कथा, राजन्, पृथिवीतले प्रतिदिनं संभाषणं कुर्वते। पाताले फणिनांपतेः प्रियतमा गायन्ति कीर्तिर्मुदा, कृतस्येहं नट्टलस्य विबुधः सम्भाषते सद्गुणान् ।।
घत्ता- इतना सब होने पर भी नागों, नरों एवं अमरों के मन को हरने वाले तथा दोनों प्रकार की कठिन तपस्या करने
वाले उस तपस्वी (पार्श्व) का बाल भी बाँका नहीं हुआ। वे प्रभु पार्श्व अकम्पित ही रहे। भव्य-कमलों के लिये सर्य के समान वे पार्श्व जिनेश्वर उसी प्रकार स्थिर थे, जिस प्रकार कि नटल साहू का मन। (132)
पुष्पिका सौमनस-धनपति द्वारा भीमाटवी वन में असुरेश को उपसर्ग करने से रोकने सम्बन्धी आदेश का तथा असुरेश द्वारा आकर विविध उपसर्गों को रोकने और पार्श्व प्रभु के परिषह के सहन करने का वर्णन करने वाला सातवीं संधिपरिच्छेद समाप्त हुआ। (संधि 7) (छ)
गुणभरित एवं मनोज्ञ यह श्रीपार्श्वनाथ वरित श्रीधर बुध ने रचा है और इसका अनुमोदन-अभिनन्दन भव्य नट्टल साहू ने किया है।
आश्रयदाता के लिये आशीर्वाद हे राजन्, जिस पार्श्वप्रभु की सत्कथा, बृहस्पति भी स्वर्गपति (इन्द्र) के सम्मुख निरन्तर कहता रहता है और जो पृथिवीतल पर प्रतिदिन प्रवचन करता रहता है, पाताल में फणिपति की प्रियतमा भी प्रसन्न होकर जिसके प्रशंसागीतों का संकीर्तन करती रहती है, उन्हीं पार्श्वप्रभु के चरित सम्बन्धी ग्रन्थ की रचना मुझ बुध श्रीधर ने साहू नट्टल के गुण-गणों से प्रभावित होकर तथा उसी के विशेष अनुरोध से की है।
158 :: पासणाहचरिउ