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जेत्थु वम्मणंदणो एत्थु अंतरे जलं
दिट्ठ बज्जपाणिणा
णाणिणा सुजाणियं
भासुरासुरारिणा पावबुद्धिणाक एरिसोवसग्गयं
अज्जु तासु वेरिणो पाडमीह सीस बज्जदंडु दारुणं
168 :: पासणाहचरिउ
दो।। सुवच्छलं ।। वाणा ।।
णियाणियं । ।
सुहारिणा ।।
पउमयं । ।
घत्ता - पवियप्पेवि एम सुरेसरिणा परिभमेवि णविय जिणेसरिणा ।
महोग्गयं ।।
सुर वेरिणो ।।
भी ।।
महारुणं ।।
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छुडु बज्जदंडु मुक्कउ खयरु संतुट्ठउ ता मणि फणियरु ।। 139 ।।
Construction of big preaching-campus (Samavaśaraṇa) its ornamental discription. वत्थु छन्द - तं णिएविणु बज्जु आवंतउ |
थरहरिउ असुराहिवइ गयणे लग्गु भज्जणहो भीयउ । पइसंतुमयरहरे दहे धरणि रंधि लेविणु सजीयउ । । जलु थलु हयलु परिभमेवि मण्णेवि तिहुअण इट्टु | णावंतउ णियसिरकमलु पासहो सरणु पइछु । । छ । ।
वामादेवी का सुंदर नन्दन विराजमान था ।
इसी बीच में उस मधुरभाषी ब्रजपाणि सुरेन्द्र ने सुविस्तृत जल देखा, तब उस ज्ञानी (सुरेन्द्र) ने अपने अवधिज्ञान से जान लिया कि यह महान उग्र जलोपसर्ग भी उसी पापबुद्धि सुखापहारी शत्रु भासुर कमठासुर द्वारा किया गया है। अब मैं इसी समय उस देव-शत्रु उस कमठासुर के शीर्ष पर अपना अत्यंत दारुण बज्रदण्ड का भीषण प्रहार करता हूँ। घत्ता - इस प्रकार अपने मन में विकल्प कर उस सुरेद्र ने घूमकर सर्वप्रथम पार्श्व जिनेश्वर को नमस्कार किया। बाद में छूटते ही उस खेचर सुरेन्द्र ने अपना बज्रदण्ड उसे (कमठासुर को) मारा, जिससे वह धरणेन्द्र भी मन में अत्यन्त संतुष्ट हुआ ।। 139 ।।
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समवशरण की संरचना : आलंकारिक वर्णन
वस्तु-छंद- तब अपनी ओर आते हुए (भीषण) बज्रदण्ड को देखकर वह असुराधिपति - कमठ थर-थर काँपने लगा और भयभीत होकर आकाश में जाकर छिप गया। वहाँ से भागकर वह समुद्र में (द्रह में जा घुसा। वहाँ से भागकर पृथ्वीरंध्र में जा घुसा। इस प्रकार वह अपने प्राण लेकर जल, स्थल और आकाश में सभी जगह घूमा, लेकिन कहीं भी उसे शरण नहीं मिली । अतः वह "त्रिभुवन में इष्ट शरण पार्श्वप्रभु ही है," ऐसा मानकर वहीं आया और अपने शिर-कमल को झुकाकर वह पार्श्वप्रभु की शरण में आ घुसा । (छ)