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केवललच्छि पसाहिउ वट्टइ समवसरणु सक्काणइ विहियउ तं णिसुविणु कहिमि ण मायउ तहि-जहिँ वियरिय जिणेसरु पासु
हरिसें भविण हियउ विसद्वइ ।। धए सुरवरणियरिं महियउ ।। परियणेण परियरिउ समायउ ।। गउ सयंभु णामेण महीसरु ।।
घत्ता - पेक्खेवि जिणु अमयासण-सहिउ तिहुअण-जण बोहण रइरहिओ । जाउ वइराउ राहिवहो सपयाव - णिहय-दिवसाहिवहो ।। 143 । ।
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King Swayambhu accepts asceticism before Pārswa. वत्थु-छन्द — णवेवि पासहो पयपंकयइँ ।
करजुअलु भालयलि धरि थुणिवि थोत्त सयसहसलक्खहिँ । पुंणु-पुणु वि जय-जय रवेण विविह देस-भासेहिँ दुलक्खहिँ । । झत्ति सयंभुणराहिवेण पडिगाहिय जिणदिक्ख । कर-कुवलय-फलइव विमलु पुणु परियाणिय सिक्ख ।। छ । ।
सो पहिलउ गणहरु संभूअउ पासजिणेसर-वाणि-धुरंधरु वरकुमारि तहो दुहिय पहावइ
सयलामल-गुण-भायण-भूयउ ।। कलगलरवणिज्जिय णवकंधरु ।। जो जिधम्में समणु पहावइ ।।
है, जो कि भव्यजनों के हृदय को हर्ष से भर देती है । शक्र ( सौधर्मेन्द्र) की आज्ञा से इस समवशरण की रचना की गई है, कुबेर ने उसे ऐसा बनाया है जो कि स्वर्गपुरी से भी महान् है ।
आपके समवशरण को आया हुआ सुनकर यह स्वयम्भू नाम का राजा (अर्थात् मैं) कहीं भी नहीं रुका और अपने परिजनों के परिवार सहित यहाँ आ गया हूँ, जहाँ कि आप (पार्श्व - जिनेश्वर ) विराजमान हैं।
घत्ता - त्रिभुवन के जीवों को प्रतिबोध देने वाले, राग-द्वेष रहित उन प्रभु पार्श्व के दर्शन करते ही अपने प्रताप से दिवसाधिपति सूर्य को भी नीचा दिखाने वाले उस नराधिप स्वयम्भू को तत्काल वैराग्य उत्पन्न हो गया । ।। 143 ।।
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राजा स्वयम्भू स्वयं ही पार्श्व से दीक्षा ग्रहण कर लेता है
वस्तु-छन्द — श्री पार्श्व प्रभु के चरण-कमलों में नमस्कार कर, कर-युगलों को अपने मस्तिष्क पर रखकर, शत-सहस्र (लाखों) बार स्तुति स्तोत्र का पाठकर पुनः पुनः जय-जय शब्दों से दो लाख बार विविध देश्यभाषाओं में स्तुति कर हस्तकमल पर रखे हुए फल के समान निर्मल समस्त शिक्षाओं को जानकर उस नराधिप स्वयम्भू ने तत्काल ही दीक्षा देने हेतु पार्श्व प्रभु से प्रार्थना की
संपूर्ण निर्मल गुणों का भाजन वही स्वयम्भू पार्श्व का प्रथम गणधर हुआ, पार्श्व-जिनेश्वर की वाणी का वही धुरंधर (धारक) बना। उसने अपनी वाणी की मधुरता से नवीन मेघों के शब्दों को भी जीत लिया था । उसकी प्रिय पुत्री प्रभावती भी कुमारी थी, जो जिनधर्म में दीक्षित होकर श्रमणी प्रभावती बन गई। जो ( आगे चलकर ) सकल
पासणाहचरिउ :: 173