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तक्खणे कमठासुरु भय मुक्कउ तिपयाहिण विहाणु विरएविणु पणविउ पासणाहु परमेसरु समवसरणु किउ अमरवराणए वलय सरिस धुली पायार णंदण वण सरवरहिँ विसालहिँ मणिमय माणथंम वर वल्लिहिँ रयण जडिय बेइयहिँ विचित्तहिँ बज्ज-सुवण्ण-फलिहमय सालहिँ गोउर-णट्टसाल-धूवहडहिँ
वज्जु विवित्तसत्तु-करि ढुक्कउ।। पाणिपोम भालयले ठवेविणु।। सयमहेण सहुँ सुरहिँ जिणेसरु ।। धणदेवी कंतएण समाणए।। सलिल भरिय खाइय वित्थारें।। तीर परिट्ठिय पवर मरालहिँ।। कुसुम-रेणु-रंजियहिँ णवल्लिहिँ।। स सिरिहरिय तिहुअण जण-चित्तहिँ।। विंतर-असुर-कप्प सुरबालहिँ।। अट्ठोत्तर-सय-मंगलणिवडहिँ।।
घत्ता- दुगुणिय-पण पवर महाधयहिँ वसहाइ समंकिय मरुहयहिँ।
एक्केक्कउ-अशोत्तर-सएण परियरियउ मणहर धयवएण।। 14011
8/9 Construction of the preaching campus (samavasarana) having twelve sections.
वत्थु-छन्द- रयण-घडियहि जायरुक्खेहिँ।
तह तिविह वरवावियहिँ पंच वण्ण रयणहिँ समूहहिँ। सविचित्त सहमंडवहिँ मंदरेहँ पसरियमऊहहिँ।।
कमठासुर तत्क्षण ही भयमुक्त हो गया। वह वज्रदण्ड भी शत्रु को बलहीन बनाकर इन्द्र के हाथ में वापिस लौट गया। विधानपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर, हस्त-कमल को भाल तक पर स्थापित कर इन्द्र के साथ सभी देवों ने जिनेश्वर पार्श्वनाथ को परमेश्वर कहकर प्रणाम किया। इन्द्र की आज्ञा से धनदेवी (या वणदेवी) के पति कुबेर ने समवसरण की रचना की। उस कबेर ने वलयसदश गोलाकार धली-कोट बनाया, जल से भरी चौडी खाई नंदनवन और विशाल सरोवर बनाये। सरोवरों के तीर पर स्थित उत्तम हंस बनाये। पुनः उसने मणिमय मानस्तम्भ बनाया, तत्पश्चात् उत्तम पुष्पों और रेणु-रज से रंगी हुई नवीन-नवीन लताओं से विभूषित, रत्न जटित विचित्र वेदिकाएँ बनाई, जो अपनी शोभा से त्रिभूवन के जनों के चित्त का हरण कर रही थीं। पुनः उसने स्फटिक एवं सुवर्ण के कोट बनाए, जिनकी रक्षा व्यंतरवासी, भवनवासी और कल्पवासी सुंदर-सुंदर देव कर रहे थे और जहां गोपुर, नाट्यशाला, धूपघट और 108 मंगल-द्रव्य-कलश सुशोभित हो रहे थे।
घत्ता- पाँच के दूने अर्थात 10 उन्नत-उन्नत महाध्वजाएँ, जो कि वृषभादि 10 चिन्हों से अंकित थीं, वे वायु में लहरा
रही थीं। मनोहर 108 ध्वजाओं से उस समवशरण को घेर दिया गया। ।। 140।।
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द्वादश प्रकोष्ठों वाले समवशरण की रचनावस्तु छंद- वह समवशरण रत्नजटित घट, सुवर्ण-वृक्ष, तीन प्रकार की बड़ी-बड़ी वापियाँ, पंचवर्ण के रत्न
समूहों से सुविचित्र सभा-मंडप, फैलती हुई किरणों वाले मन्दर-पर्वत, लता-मंडप, क्रीड़ा-पर्वत, उत्तम
पासणाहचरिउ :: 169