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लय-मंडव कीला-कुहर वरधारा-जंतेहिँ। कप्प-महीरुह तोरणहिँ छण-ससियर-कंतेहि।। छ।।
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फलिह-सिलायल-बारह-कोट्ठहिँ तहिँ दाढाकरालु सिंहासणु तासुप्परि णिविट्ठ परमारुहु अमराहय-दुंदुहि-महडामरु छत्तत्तय-लच्छी-परियरियउ भामंडल-जुइ उज्जोइय णहु महुरक्खर-मागह-भासिल्लउ वरचउतीसातिसयगणालउ । पायवीढठिय धम्मरहंगउ दूरुज्झिय कसायमयहासउ
वरगंधउडि-ठाणसिरिमंठहिँ।। रयण किरण ककुहाणण भासणु।। तिहुअणवइ विरइय पूजारुहु।। पवरामर-कर-चालिय-चामरु ।। णवकंकेल्लि कुरुह विप्फुरियउ।। कुसुमवरिस कव्वुरिय पवणपहु।। सत्त-तच्च-पवियार रसिल्लउ।। पंच-मुट्ठि उप्पाडियबालउ।। णिज्निय भवभडु-णिरंगउ।। पासणाहु पासिय जमपासउ।।
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घत्ता- तेवीसम जिणवरु जणणहरु णिम्मल केवलगणरयणहरु।
एत्यंतरे सयमहु सइँ थुणइँ जिणगुणरयणइँ तह जह मुण'।। 141 ।।
(जल-) धारायंत्र, कल्पवृक्ष तथा पूर्ण चन्द्र के समान कान्ति वाले तोरणों से सुशोभित था।। छ।।
उस कुबेर ने उसमें स्फटिक-शिला-तल वाले बारह कोठे बनाये। श्रेष्ठ सुंदर गंधकुटी नामक एक स्थान बनाया. वहाँ दाढों से कराल लगने वाले सिंह सहित एक पीठासन बनाया. जो अपने रत्नों की किरणों से दिशाओं के मुख को भास्वर कर रहा था। उस सिंहासन पर पूजा योग्य परम अरिहन्त त्रिभुवनपति भगवान पार्श्व प्रभ विराजे। उस समय देवतागण महाशब्दवाले दुन्दुभि-वाद्य बजा रहे थे। इन्द्रगण अपने हाथों से चमर दुरा रहे थे। वे प्रभु छत्रत्रय की शोभा से युक्त थे। नवीन अशोक वृक्ष स्फुरायमान हो रहे थे। भामण्डल की कांति से आकाश उद्योतित हो रहा था। पुष्पवृष्टि से पवन-पथ (आकाश) चित्रलिखित जैसा हो रहा था। मधुर अक्षर वाली सरस मागधी भाषा में प्रभु पार्श्व की सात-तत्वों पर दिव्यध्वनि खिर रही थी। (आगम-शास्त्र में इन्हें ही अष्ट-प्रातिहार्य कहा गया है)।
वे पार्श्व प्रभु उत्तम चौतीस अतिशयों के गुणालय थे। उन्होंने पंचमुष्टि से बालों का लोंच किया। उनके चरणपीठ में धर्मचक्र स्थित था। उन्होंने संसार का भट माने जाने वाले शरीर रहित कामदेव को जीत लिया था। कषाय-मद जनित हास्य का उन्होंने दूर से ही त्यागकर दिया। इस प्रकार उन पार्श्व प्रभु ने यम की पाश को सदा-सदा के लिये तोड़ डाला।
घत्ता- इस प्रकार भव-दुखों को नष्ट करने वाले वे तेवीसवें जिनवर (पार्श्वप्रभु) जब निर्मल केवलज्ञान गुण रूपी
रत्न के गृह के समान हो गये, तभी इन्द्र ने गुणरत्नों युक्त उनकी, जिस-जिस रूप में वह उन्हें जानता था, उनकी स्तुति की।। 141 ।।
170 :: पासणाहचरिउ