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वारहमि गुणठाणे ठिएउ सुक्कज्झाणु थिरमण घरतहो ।। घायंतो अइ घणघोरघण घाइ- चउक्क करिंदु | उप्पण्णउं केवलु विमलु खोहिय सयल सुरिंदु । । छ । ।
तक्खणे झत्ति चइत्ति पवित्तए छुडु केवलसिरि परिरंभिउ जिणु कमठासुरु परिगलिय महाबलु जो जय गुरु गुणमणि सायरु जं पेक्खेवि तरुणु दिवायरु जेण हिउ मणसिउ सुरडामरु जासु भए कतु वि कंपइ वरुणु ण बोलइ वरिसंतउ जले सु जम्म जणव मणु हरिसइ सुभीसणु खय सुहडु ण हक्कइ को विण तिहुअणे तुडि जसु पावइ णरवरणियरु णवंतउ आवइ जो केवलि तित्थयर णिराउहु
कसण चउत्थिहि फग्गुण चित्तए । । ता णियमणे चिंतइ आउलमणु ।। विरइय विविह विरूव महाछलु । । णिरुवम सासय सिवसुहसायरु ।। अमिय सलिलु परिसवइ सिसिरयरु ।। संताविय फणि णर खयरामरु ।। पोमावइ विणएण पयंपइ ।। फणिवर कमलासणु विरयइ तले ।। घणवइ धणु घणधारहि वरिसइ ।। वाउ सुअंधु वहंतु ण थक्कइ ।। तेलोक्कु वि दासत्तणु दावइ ।। तासु केम उवसग्गु समावइ | | णिप्परिग्गहु णिज्जिय कुसुमाउहु ।।
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शुक्लध्यान को धारण किये हुए थे और उससे वे जब चार घातिया कर्म रूपी अति घनघोर भीषण गजेन्द्रों का घात कर रहे थे, उसी समय उन्हें निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । (छ)
वह चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की पवित्र चतुर्थ तिथि तथा फाल्गुनी नक्षत्र था, जब पार्श्व ने तत्काल ही अपनी कैवल्यश्री को प्रकट किया। तभी वह कमठासुर, जिसने कि विविध प्रकार के महाछल-कपट किये थे, अपने मन में अत्यन्त व्याकुल हो उठा। उसका महाबल गलित हो गया ।
166 :: पासणाहचरिउ
वह अपने मन में सोचने लगा और कहने लगा कि जो जगत के श्रेष्ठ गुरु हैं, जो उत्तम गुण रूपी रत्नों के सागर हैं, जो निरुपम हैं, जो शाश्वत शिवसुख के सागर हैं, जिनको देखकर तरुण दिवाकर और चन्द्र अमृत-जल को छोड़ते रहते हैं, जिन्होंने फणी, मनुष्य, खचर और अमरों को सन्तप्त कर देने वाले सुरत- देवता (कामदेव) के मद को चकनाचूर कर दिया है, जिनके भय से यमराज भी काँपता रहता है । पद्मपति-विष्णु भी विनयपूर्वक बोलते हैं। जल बरसाते हुए वरुणदेव भी जिन्हें जल में डुबाते नहीं ।
फणिपति ने नीचे तल में कमलासन की रचना कर दी है, जिनके जन्म के समय समस्त जनपदों का मन हर्षित हो गया था। धनपति कुबेर ने धन की (अखण्ड ) धारा बरसाई थी, जिसके यश का भीषण सुभट भी क्षय नहीं कर सकता, जिनकी सुगन्ध को ढोती हुई वायु भी कभी नहीं थकती, त्रिभुवन में ऐसा कोई भी नहीं, जो जिनेन्द्र की किसी भी प्रकार की त्रुटि को पा सके । त्रैलोक्य में जिसकी दासता को सभी स्वीकार करते हैं। नरवरों के समूह जिनको आकर नमस्कार करते रहते हैं, उसे ये उपसर्ग आपत्ति का अनुभव कैसे करा सकते हैं? जो केवली हैं, अकेले हैं, तीर्थंकर ( महापुरुष) हैं, निरायुध (शस्त्रहीन) हैं, निष्परिग्रही (परिग्रह मोह-मूर्च्छा रहित ) है और काम को जीतने वाले हैं—