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वियारि विमाणु
गिरिंद समाणु।। पहिल्लउ णाय
सुगोविय पाय।। पुणो कय खेरि
हणेसमि बेरि।। भणेविणु एउ
फणीसरु देउ।। विमुक्कउ बज्जु
बलंतउ सज्जु।। जिणिंदहो जाम
णिवारिउ ताम।। भुअंगवरेण
तओ असुरेण।। विमुक्कु किवाणु
सचक्क सवाणु।। णं तेवि पदुक्क
भएण विलुक्क।। घत्ता- एत्यंतरे लहु कमठासुरेण सिरचूडामणियर भासुरेण।
फणि-फण मंडवचूरण कएण मेल्लिय णाणा गिरिवर रएण ।। 136 ।।
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8/5 21 The furious Demon creats more disturbances repeatedly on Dharaṇendra. माथु-छन्द- तो वि ण चलइ धीरु धरणिंदु।
णिय ठाणु मेल्लिवि गिरिवासाणुराउ-वसेण वि सुअणु व। रक्खंतु तणु जिणवरहो तेयवंतु गरलेण तवणु व।। तहिँ अवसरि पोमावईए धरिउ सिरोवरि छत्तु। णं जिणपासहो जयसिरिए दरिसिउ वियसिय वत्तु।। छ।।
मेरा (विशाल) विमान देखो। मैं भी पैर छिपाने वाला पहले जैसा नहीं रहा। अतः क्रोध पूर्वक बैरी को तो में मारूँगा ही।
यह कह कर उस असुर ने फणीश्वर देव पर जलता हुआ बजदण्ड तत्काल तैयार कर छोड़ा। जिनेन्द्र पर भी जब उसे दे मारा जब धरणेन्द्र ने उसका निवारण किया। तत्पश्चात् असुर ने कृपाण चलाया और भी चक्र सहित तथा बाण सहित अनेक शस्त्र भी चलाये। किन्तु वे भी नहीं दुके। भय से मानों सभी छिप गये (निरर्थक हो गये)।
घत्ता- इसी बीच कमठासुर ने शिर की चूडामणि की किरणों से भास्वर फणी के फण-मण्डप को चूर्ण करने के
लिये तत्काल ही अनेक प्रकार के पर्वतों को उखाड़-उखाड़ कर फेंके।। 136 ।।
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क्रोधावेश में वह कमठ धरणेन्द्र पर भी अधिकाधिक उपसर्ग करने लगता हैवस्तु-छन्द- तो भी वह धीर-धरणेन्द्र चलायमान नहीं हुआ। जिस प्रकार पर्वत के निवास का अनुरागी अपने स्थान
से नहीं हटता, जिस प्रकार सज्जन व्यक्ति व्यसन (कष्ट) आने पर भी अपने स्थान से नहीं हटता, ठीक उसी प्रकार वह धरणेन्द्र भी अपने स्थान से न हटा और उसने अपने विष की तपन से उन तेजस्वी पार्श्व के शरीर की सुरक्षा की। उसी अवसर पर पदमावती ने भी अपने सिर के ऊपर एक छत्र धारण किया, मानों पार्श्व जिनेन्द्र की विजयलक्ष्मी ने ही अपना विकसित मुख दिखलाया हो। (छ)
164: पासणाहचरिउ