Book Title: Pasnah Chariu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 243
________________ 10 पोमावइ परिवरियउ जावहिँ टलटलियइँ धरणीरुह सिहर कडयडंत पडिवडिय महीरुह अवरोप्परु तरुवर संघट्टइँ दिण्ण झंप गिरिसिहरहो सीहहिँ खडहडियइँ देउल धवलहरइँ वणकरिवरहिँ विमुक्कइँ दाणइँ किलिकिलियइँ साहामयणियर सवणोवरि विणिवेसिय णियकर इय खोहंतु खोणि पायालहो फणिवइ चलिउ खुहिय महि तावहिँ।। मेइणीए लइयइ महविहरइँ ।। गय जल सरय पणय सरसीरुह।। भय-भरियइँ हरिण-गण पणदइँ।। मुक्क विसाणलु दुगु दुजीहहिँ।। झलझलियइँ तोरिणि मयरहरइँ।। रुलुघुलियइँ सूवरसंताण।। थरहरियइँ पट्टण-पुर-णयरइँ ।। समणे चमक्किय खयरासुरणर।। णाय-कण्ण वरगीयरवालहो।। 15 घत्ता- संपत्तउ दुरसणराउ तहिँ विसहंतुवसवग्गु जिणिंदु जहिँ। फणमणियर उज्जोविय धरणि जपंतउ पोमावइ रमणि।। 134।। 8/3 Dharaṇendra Deva erects a shelter with his seven hoods to protect Parswa from the Demon's disturbances. वत्थु-छन्द- अज्जु जायउ सहलु महु जम्मु । संपत्तु जं एत्थु हउं सिरिणिवास जिण-पासणाहहो उवसग्गणिरसणकएण मयण राय सारंगवाहहो।। पद्मावती सहित वह फणिपति (धरणेन्द्र) जब चला तब पृथ्वी काँप उठी। पर्वतों के शिखर टलटलाने लगे। मेदिनी (भूमि) ने महाविहार किया अर्थात् पृथिवी चंचल हो उठी। वृक्ष कड़कड़ करते हुए गिरने लगे। सरोवरों का जल सूख गया और शरद्कालीन कमल झुक गये। विशाल वृक्ष परस्पर में टकराने लगे। भयाक्रान्त होने के कारण हरिणगण नष्ट (अदृश्य) हो गये। सिंह गिरि-शिखरों से कूदने लगे (झाँप देने लगे) दुष्ट द्विजिह्व—सर्प विष-अग्नि छोड़ने लगे। देवालयों के धवल-गृह हड़हड़ाने लगे। नदी, तालाब झलझलाने लगे (लहरें लेने लगे)। वन के करिवरों ने मदजल छोड़ दिया, शूकर-समूह इधर-उधर भटकने लगे। शाखा मृग-समूह (बानर गण) किलकिलाने लगे (अशांत हो उठे) पट्टण, पुर एवं नगर थरथराने लगे। कानों के ऊपर अपने-अपने हाथ रखकर खचर, असुर एवं नर अपने मन में चौंक उठे। नाग-कन्याओं के उत्तम गीतों ने पाताल और पृथ्वी-मण्डल को भी क्षुब्ध कर दिया। घत्ता- वह द्विरसनराज (नागेन्द्र) उस स्थल पर पहुंचा, जहाँ जिनेन्द्र उपसर्ग सह रहे थे। वहाँ वह अपनी फणावलि की मणि-किरणों से पृथ्वी को प्रकाशयुक्त करता हुआ अपनी रमणी (पत्नी) पद्मावती से बोला- || 134 || 8/3 धरणेन्द्र ने पार्व-प्रभु के ऊपर अपने सात फणों का मण्डप तान दियावस्तु-छन्द- हे देवि, आज मेरा जन्म सफल हुआ, जो मैं वहाँ पहुँच सका, जहाँ कि श्री के निवास (स्वरूप) जिनेन्द्र पार्श्वनाथ उपस्थित हैं। मदनराज रूपी मृग के लिये सिंह के समान उन परमेश्वर (पाश्व) के उपसर्ग को दूर करने वाला मैं उनके निर्मल चरण-कमल युगल को प्रणाम करता हूँ। तत्पश्चात् उसने पार्श्व पासणाहचरिउ :: 161

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