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जह सिणेहु आलावविवज्जिउ जह मइ-पसरु सोयसंगहियहो जह विस्सासु सच्चपरिहीणहो जह ववहारु णज्झिय णयरहो जह रइ रंगु कडु अक्खरवयणहो
जह सुहडग्गाए भीरुहे गज्जिउ ।। जह कलत्तु मंदिरु ठिउ पहियहो।। जह चिरमलु खरयर-तव-खीणहो।। जह तमणियरु तरुण अहिमयरहो।। जह सुच्चत्तु सुसेविय मयणहो ।।
घत्ता- जह णिद्दामरु चिंताउरहो जह कर-पीडिउ जणवउपुरहो।
जह जिणवर जम्मणे सुरवइहो तह आसणु कंपिउ फणिवइहो।। 133 ।।
8/2 Dharaṇendra Deva arrives soon at the spot of disturbance (Upsarga). वत्थु-छन्द- तं णिएविणु उरयराएण।
परियाणिउ तक्खणेण पुव-जम्मु बइर अवहिमाणेण। गय जलय सारय सयल विप्फुरंत ससियरसमाणेण।। जासु पसाएँ अइ दुलहु मइं पावियउ पहुत्तु । तहो वट्टइ परमेसरहो घोरुवसग्गु बहुत्तु।। छ।।
भी कम्पित हो जाती है, जिस प्रकार अनभ्यासी (नहीं गुनने वाले) का विद्याबल नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार प्रियवचन रहित स्नेह चलायमान हो जाता है, जिस प्रकार सुभट के आगे कायर-भीरु की गर्जना भी लड़खड़ा जाती है, जिस प्रकार शोकाकुल व्यक्ति का मति-प्रसार रुक जाता है, जिस प्रकार मंदिर (भवन) में ठहरे हुए पथिक की कलत्र (पत्नी) चलायमान हो जाती है, जिस प्रकार सत्यविहीन के प्रति विश्वास कंपित हो जाता है, जिस प्रकार उग्र तप से क्षीण साधु का चिरकाल से संचित कर्ममल नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार नगर छोड़ने वाले पुरुष का व्यवहार (लेन-देन) चलायमान हो जाता है, जिस प्रकार तरुण सूर्य के सम्मुख तमोनिकर चलायमान हो जाता है, जिस प्रकार कटु अक्षर बोलने से रति का रंग चलायमान हो जाता है, और जिस प्रकार काम-सेवी की शुचिता चलायमान हो जाती हैघत्ता- जिस प्रकार चिन्तातुर की निद्रा का वेग चलायमान हो जाता है, जिस प्रकार कर-पीडित होकर
जनपद के नगरों में घूमने वाले का मन चलायमान हो जाता है, तथा जिस प्रकार जिनवर के जन्म के समय सूरपति का आसन चलायमान हुआ था, ठीक उसी प्रकार फणिपति धरणेन्द्र का आसन भी कम्पायमान हो उठा। ।। 133 ।।
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धरणेन्द्र शीघ्र ही उपसर्ग-स्थल पर पहुँचता हैवस्तु-छन्द- आसन को कम्पित होते देखकर उरगराज (धरणेन्द्र देव) ने भी अपने उत्कृष्ट अवधिज्ञान से तत्क्षण
ही पूर्व जन्म का समस्त बैर-संबंध जान लिया। शरत्कालीन मेघ रहित चमकते हुए पूर्णचन्द्र के समान वह धरणेन्द्र बोला- जिसके प्रसाद से मैंने अति दुर्लभ प्रभुत्व वाला यह पद पाया है, उसी परमेश्वर के ऊपर आज अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग हो रहे हैं। (छ)
160 :: पासणाहचरिउ