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फुट्टंतु पालिहे खलु व धरणिरंधि जंतउ दुजीहु व ।। वियरंतु विममसयइँ विसायणु व धसंतु ।
मंदिर सिहरहो तक्करु व फेणावलिहि हसंतु । । छ । ।
अणिवारिउ दसदिसि धावंतउ कहिंमिण रइ-बंधइ विरहियणु व कहिंमिण माइ सुपुरिस विढत्तु व उहिँ रवि हरि वर तासइ वण-करिकुंभ गलिय मय विहुणइँ सिहरिहु पवर सिलायल चालइ पट्टण-पुर-णयरायर रेल्लइँ उब्बासइँ तावसहँ णिवासइँ वज्जणिहाए गिरिवर घायइँ सयल सलिलणिहि जलु आकरिसइ
असुरेसहो पेसणु व करंतउ ।
दूसहु दुहयरु दुज्जण वयणुव ।। घुलइ पडइ पडिक्खलइ पमत्तु व ।। गयणि चरंते खयर णिण्णासइ ।। वाणर-विरिय-हरिणगण-हिणइँ ।। गढ-मढ-देउल-मंदिर ढालइ ।। गामाराम महीरुह पेल्लइ ।। सिरिहल सहियइँ वणसंकासइँ ।। जणवय चित्ते महाभउ लायइँ ।। जइवि निरंतर जलहरु वरिसइ ।।
गरज- गरज कर अविरल वर्षा कर रहे थे। जिस प्रकार खल पुरुष न्याय-पद्धति को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार वे मेघ भी तटों की तोड़-फोड़ कर रहे थे। जिस प्रकार द्विजिह्व-सर्प धरणि - रंध्र (वामी) में प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार वे मेघ भी भूमि में प्रवेश कर रहे थे। जिस प्रकार वेश्याजन सभी के मन में विभ्रम-विलास उत्पन्न करती हुई सर्वत्र विचरती रहती हैं, उसी प्रकार वे मेघ - समूह भी सर्वत्र विचरण कर रहे थे। जिस प्रकार चोर हँसता हुआ धवल मंदिर - शिखर के कलश को चुरा लेता है ठीक उसी प्रकार वे मेघ भी अपनी फेनावली के माध्यम से मानो हँसते हुए महलों के शिखरों को ढँक रहे थे I
जिस प्रकार असुरेश के दासगण दशों दिशाओं में निर्विघ्न रूप से दौड़ते रहते उसी प्रकार वे मेघ गण भी दशों दिशाओं में मानों असुरेश की दासता को स्वीकार करते हुए ही अनिवार्य रूप से दौड़ लगा रहे थे। विरही - जन की तरह वे मेघ कहीं भी रति बन्ध नहीं कर रहे थे अर्थात् वे कहीं भी पड़ाव नहीं डाल रहे थे । दुःसह दुःखकर दुर्जन-वचनों की तरह वे मेघ भी दुःसह दुःख उत्पन्न कर रहे थे। जिस प्रकार सत्पुरुषों का स्वामित्व-वर्धन कहीं भी नहीं समाता, उसी प्रकार उन मेघों का समूह भी कहीं नहीं समा रहा था । पटह की ध्वनि के समान वे मेघ ध्वनि करते हुए ऐसे घूम रहे थे मानों कोई प्रमत्त पुरुष ही गिरता पड़ता स्खलित हो रहा हो। जिस प्रकार आकाश में सूर्य के घोड़े त्रास देते हैं, उसी प्रकार वे मेघ भी आकाश में चलते हुए खेचरों को त्रस्त कर रहे थे (अर्थात् आकाश में चलते हुए सूर्य की किरणों को वे मेघ नष्ट कर रहे थे) ।
वनगजों के मस्तक से गिरे हुए मद-जल को वे मेघ नष्ट कर रहे थे। वे वानर, विरियि (चिड़ियाँ) हरिण - गणों को नष्ट कर रहे थे। वे मेघ अपने प्रवर-वेग से पर्वतों के विशाल शिलातलों को भी चलायमान कर रहे थे। गढ़, मठ, देवालयमंदिर को ढहाते हुए जा रहे थे। पट्टनों, पुरों, नगरों एवं आकरों में रेला मचा रहे थे। ग्रामों, उद्यानों एवं वृक्षों को पेल डाल रहे थे। वहाँ के तापसों, उपासकों एवं निवासियों के निवास स्थलों को उजाड़े जा रहे थे। श्री समृद्ध हल्य क्षेत्रों को भी वन-तुल्य बनाते जा रहे थे। जिस प्रकार वज्र के प्रहार से पर्वतों का घात होता है, उसी प्रकार वे मेघ भी पर्वतों का घात कर रहे थे। इस प्रकार समस्त जनपदों के निवासियों के चित्त में महान् भय उत्पन्न कर रहे थे । यद्यपि वे मेघ-समूह निरन्तर वर्षा कर रहे थे, फिर भी वे समुद्र के जल को भी आकर्षित कर रहे थे।
पासणाहचरिउ :: 157