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इय णिज्झाएवि आइउ जलहरु गरुअत्तण जिय अंजणगिरिवरु
घत्ता — अमुणिय पमाणु णहयल - सरिसु बहुविह पायव पयणिय हरिसु । रिसिय गिम्हारि महामरिसु थिर-थोर-धार-सलिलहि वरिसु ।। 130 ।।
अलिउल-कज्जल- कसणु-समलहरु ।। गुरु गहीर रव रोसिय हरिवरु ।।
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Figurative description of the water carrying heavy dark clouds. वत्थु - छन्द — भुअणु भीसणु तडिलयाहरणु ।
जमराय-राहाहरणु कसण वडल पच्छाइय मंदरु । सुरचावलच्छी धरणु जलभरेण पूरंतु कंदरु ।। खय-कालाणिल-पेरियउ कय बहु जीवपमाउ । णं णियठाणहो संचलिवि मयरहरु समाउ ।। छ । ।
दीसह णवघणु विहियाडंबरु दुणिरिक्ख णं आसीविसहरु
दुष्पुत्तु व छाइय कुलणहयलु भवियजणु व अविरलु वरिसंतउ
जणवण पूरिय घण-डंबरु ।। गहिरवाणि णं गोत्तमु गणहरु ।। कुरिंदु व परिबोलिय महियलु ।। कुसमय मुणि व सुपहु णिरसंतउ ।।
यह विचार कर उसने मेघ का स्मरण किया । स्मरण करते ही गुरुता में अंजन पर्वत के समान तथा गर्जना से सिंह को भी कुपित कर देने वाले तथा भ्रमर के समान काले काले श्यामल मेघ भैसों के झुण्ड के समान वहाँ आकर उपस्थित हो गये ।
घत्ता- वे मेघ आशातीत अप्रमाण, नभस्तल के समान विस्तृत, विविध प्रकार के पादप-वृक्षों के लिये हर्षित करने वाले और ग्रीष्म ऋतु के महाक्रोध का निरसन करने वाले थे। उन्होंने अविरल मोटी धारा वाली जलवर्षा प्रारम्भ कर दी। (130)
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सघन - मेघों का आलंकारिक वर्णन -
वस्तु छन्द- कृष्णवर्ण वाले वे सघन मेघ लोक में अति भयंकर थे, बिजली ही मानों उनका आभरण था, वे (मेघ) यमराज की राधा (भैंस) को भी हरने वाले थे, अपने कृष्ण-पटल से वे मंदर (सुमेरु) पर्वत को आच्छादित कर रहे थे, इंद्र-धनुष की लक्ष्मी को धारण किये हुए थे, अपने जल-भार से वे कंदरा को पूर रहे थे, क्षयकाल की वायु के समान वायु से पेरे जा रहे थे, जीवों को प्रमादी बना रहे थे। इस प्रकार वे (मेघ) ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों अपने स्थान से चलकर समुद्र ही आकर उनमें समा गया हो ।
जिस समय विहित आडंबर वाले वे नवीन मेघ दिखाई दे रहे थे, उस समय समस्त जनपद महान् कोलाहल से पूर्ण हो उठा। जिस प्रकार आशी विषधर (सर्प) दुर्निरीक्ष्य होता है उसी प्रकार वे मेघ भी दुर्निरीक्ष्य थे । उन मेघों की वाणी (गर्जना ) गौतम गणधर की वाणी के समान गंभीर थी। जिस प्रकार दुष्पुत्र ( कपूत) कुल रूपी आकाश को ढाँक देता है, उसी प्रकार वे मेघ भी आकाश को ढँके हुए थे। जिस प्रकार खोटा राजा पृथ्वीतल को कँपाता रहता है, उसी प्रकार वे मेघ भी महीतल को क्षुब्ध कर रहे थे । भव्यजन जिस प्रकार निरन्तर आनंद के अश्रु बरसाते
पासणाहचरिउ :: 155