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रुहिरामिस-वस-मंडियगत्तइँ णीसेसु वि णहयलु छायंतइँ फरहरंति पिंगल सिरचूलइँ उग्गामिय लसंत करवालइँ गयवरचम्मावरणु धरंतइँ करिदंत्तिय किरणालि फुरंत हणु-हणु-हणु भणंत धावंत भीमोरालिहिँ भुअणु भरंतइँ णिय-णिय भुअ-जुअ-सत्ति-पयासेवि णिप्फंदइ होएविणु थक्कइँ अकयत्थइँ वियलिय गुरु गव्वइँ पास जिणेसर तवभयगीढइँ
सभिउडि भाल विहीसणवत्तइँ।। डवडवंत डमरु व वायंत.।। करयलि संचारंति तिसूलइँ।। णर कवाल कंकाल करालइँ।। णिब्मरु हुं हुंकार करंत।। बंधु-बंधु-बंधुच्चारंत:।। दारुण दिढ दाढइँ दावंत ।। जिणणाहहो पय पुरउ सरंतइँ।। माया-विरइय रुअइँ दरिसेवि।। दूरुज्झवि भावइँ लल्लक्कइँ।। भत्तिएण वियाणण' व सव्वइँ।। जा दिट्ठइँ सेविय महिवीढइँ।।
घत्ताता कमठासुर भासुर वयणु णिद्दरियारुणदारुण णयणु।
तणु जुइ विच्छुरिय विउलगयणु अहरोवरि विणिवेसिय रयणु ।। 129 ।।
रुधिर, माँस एवं वसा से लिप्त शरीर वाले तथा भाल तथा फैली भृकुटि एवं भयंकर मुख वाले वे सभी वैताल समस्त आकाश-मण्डल में व्याप्त हो गये तथा डमडम करते डमरु बजाते हुए, अपने पिंगल वर्ण वाले सिर की चोटी को फहराते हुए, अपने हाथों में त्रिशूल को घुमाते हुए और (हाथों में) तलवारों को चमकाते हुए, डरावने लगने वाले नरकपाल-कंकालों से युक्त, गजवरों के चर्म का आवरण धारण किये हुए, जोरों से हुँ-हुँकार करते हुए, हाथी के दाँतों (खींसों) के समान दाँतों की किरणावली से स्फुरायमान, "उसे बाँध लो", उसे बाँध लो, उसे बाँध लो, की चिल्ल-पों मचाते हुए, मारो-मारो कहकर छापा मारते हुए, दारुण दृढ़ दाढ़ों को दबाते (चबाते) हुए, भयानक गर्जनाओं से भुवन को भरते हुए, जिननाथ के चरणों की ओर सरकते (खिसकते) हए, अपनी-अपनी भुजाओं की शक्ति का प्रदर्शन करते हुए, मायारचित अपने विविध मायावी रूपों को दिखलाते हए, जब वे थक गये, तब निश्चेष्ट हो गये और फिर उन्होंने अपनी भयंकर भावनाओं को दूर से ही त्याग कर दिया।
अकृतार्थ हो जाने से उनका समस्त अहंकार विगलित हो गया और वे सभी पार्श्व जिनेश्वर के तप के प्रभाव से भयभीत होकर उन (पाच) के प्रति नतमस्तक हो गये और उनमें से जिसको भी देखो वही इस पृथिवी पर उनकी सेवा करने में तत्पर हो गया।
घत्ता- (इस उपसर्ग में भी अपने को असफल पाकर-) भास्वर वदन, तथा फाड़े हुए रक्त वर्ण के भयानक नेत्रों
वाला वह असुराधिपति-कमठ अपने शरीर की कान्ति से गगनतल को व्याप्त करता हुआ अपने अधरोष्ठ को दाँतों से चबाने लगा। (129)
पासणाहचरिउ :: 153