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एत्यंतरे सुरवइ पवराणए जो ठिउ रक्खवालु जिणणाहहो वुत्तु तेण सउमणस धणेसे
कंपाविय दिढ दाणव पाणए।। णिम्मलयर तवलच्छि-सणाहहो।। भत्ति णविय तणु पणुअ जिणेसें।।
घत्ता- भो-भो असुरेस णिरंजणहो चउ घाइ घणोह पहंजणहो।
तवसिरि-भूसिय जिणवरहो णउ उवसग्गु करेव्वउ जुत्तु तहो।। 119 ।।
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Yaksharāja again and again advises the demon King not to disturb ascetic Pārswa. वत्थु-छन्द-जो रईसरराय संहरणु तेलोक्कहो सरणु।
पवर पंचकल्लाण-भायणु णिव्वाण-सोक्ख-करणु। कूरकम्म करि कुंभघायणु।। तहु उवसग्गु मुएवि लहु पणवहि पय णिय-सोक्खु । जं जर मरणुप्पत्ति दुहच्छिंदेवि पावहि मोक्खु।।
अवरु वि पयंपेमि तुह पुरउ हऊँ किंपि। पइँ सुणु वियारणिउ समणेण सई तंपि।। तित्थयर उवसग्गु जे करहिँ पाविट्ठ।
झपटा, इसी बीच में सरपति की प्रवर आज्ञा से नियक्त, निर्मलतर, तपोलक्ष्मी से समद्ध जिननाथ (पार्श्व) का दानव के प्राणों को भी कँपा देने वाला, जो सौमनस नामक कुबेर-रक्षपाल था, उसने भक्ति-पर्वक जिनेन्द्र के चरणों में नमस्कार कर उस असुरेश से कहा
घत्ता- हे-हे, असुरेश, ये मुनीन्द्र (पार्श्व) निरंजन (भावकर्मरहित) हैं, चतुर्विध घातिया (द्रव्य) कर्मरूपी, मेघ-समूह
को उड़ा डालने के लिये प्रभंजन-वायु के समान हैं, तपश्री से भूषित जिनवर हैं, अतः इन पर तुम्हारे द्वारा उपसर्ग किया जाना उचित नहीं। (119)
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सौमनस यक्ष असुराधिपति को पार्श्व मुनीन्द्र पर उपसर्ग न करने की पुनः सलाह देता हैवस्तु-छन्द- जो रतीश्वर-राज (कामराज) के संहारक हैं, जो त्रैलोक्य के शरण हैं, प्रवर पंचकल्याणकों के भाजक
हैं, निर्वाण-सुख के कारण हैं, क्रूर अष्टकर्म रूपी गज के कुम्भस्थल के घातक हैं, उनके ऊपर उपसर्ग करने का विचार छोड़ और अपना हित-सुख चाहने के लिये उनके चरणों में तत्काल ही प्रणाम कर,
जिससे तेरे जन्म, जरा एवं मृत्यु के दुखों का नाश हो एवं तुझे मोक्ष-सुख प्राप्त हो सके। और भी, मैं तेरे सम्मुख जो कुछ भी कह रहा हूँ और जो तुझे तेरे अपने मन में स्वयं भी विचारणीय है, उसे भी सुन
जो पापिष्ठ, तीर्थंकरों के ऊपर उपसर्ग करते हैं, वे तीनों लोकों में (एकेन्द्रियादि निकृष्ट कोटि में) जन्म प्राप्त
140 :: पासणाहचरिउ