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समहि महीहर सिर चालंतउ सरय- णरय णायर - सोसंतउ महमंडलियायारु करंतउ बडवानल जालोलि गिलंतउ कंदर - विवरंतर विहरंतउ कप्पामर-विमाण- खोहंतउ
तारा - रिक्ख-पंति टालंतउ ।। विवरंतर विसहर-रोसंतउ ।। जणवय लोयण- पसरु हरंतउ ।। धूलीरउ णहयले मेल्लंतउ ।। विउणु - तिउणु-चउगुणु-पसरंतउ ।। मरुरूवेण जमु व सोहंतउ ।।
घत्ता - इय दूमस जहु मरु जय भयजणणु असुहावणु असुरहँ असुहाणणु । सिरिपासकुमारहो कयहरिसु पडिहासइ चमराणिल सरिसु ।। 123 ।।
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When Meghamalin fails to stray Pārśwa from his deep meditation, he again sends beautiful angels (Apsaras) to create hindrances.
वत्थु-छन्द — जा ण चालिउ पलय-पवणेण ।
झाणत्थु सिरिपासु जिणु त्ता सुरेस तिक्खण पहाउह । सहसत्ति रोसेण सिरि पज्जलंत मेल्लिय महाउह ।।
मोग्गर झसर भुसुंढिसरा सब्वलहल करवाल । कोंत कणय पट्टिस फरिस मुसल तिसूल कराल ।। छ । ।
सहित पर्वत-शिखरों को चलाती हुई, तारा एवं नक्षत्र माला को टालती हुई, रत्नयुक्त सागर का शोषण करती हुई, वामियों में छिपे हुए विषधरों को रुष्ट करती हुई, महामण्डलाकार का रूप धारण करती हुई, जनपद की दृष्टि से दृष्टि-प्रसार का हरण करती हुई, वडवानल की ज्वालावलि को निगलती हुई, धूलि को आकाश में व्याप्त करती हुई, कन्दराओं एवं गुफाओं में विचरण करती हुई, दुगुनी, तिगुनी एवं चौगुनी मात्रा में प्रसृत होती (फैलती हुई, कल्पवासी देवों के विमानों को क्षुब्ध करती हुई, मरुत् के रूप में यमराज के समान सुशोभित होती हुई—
घत्ता - जगत को भयाकुल करने वाली असुहावनी, प्राणियों के लिये अशुभ तथा असुरों के लिये भी अशुभकारी वह दुस्सह वायु भी, उन मुनीन्द्र पार्श्वकुमार के लिये हर्षित करने वाली चामरों की वायु के हुई। (123)
सदृश प्रतीत
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असुराधिपति प्रहरणास्त्रों से जब पार्श्व को तपस्या से न डिगा सका, तब वह रूपस्विनी अप्सराएँ भेजकर उन पर पुनः उपसर्ग करता है
वस्तु छन्द- ध्यानस्थ श्रीपार्श्व-जिन जब प्रलयकालीन वायु से भी चलायमान न हुए, तब उस असुर ने रोष पूर्वक सहसा ही उनके सिर पर तेज प्रभा वाले प्रज्वलित तीक्ष्ण शस्त्रों- आयुधों तथा मुग्दर, झसर, भुसुण्डि, सब्बल, हल, तलवार, कोंत, कणय, पट्टिस, फरिस (फरशा ), मुसल और कराल - त्रिशूल छोड़े ।
पासणाहचरिउ :: 145