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ता चिंतिउ असुराहिवेण घणकल्लोलुरउद्दु। चउरंगबल विराइयउ सेण्णु व पत्तु समुदु ।। छ।।
तुंग तरंग तुरंगम वंतर हारोहर रहराइ विराइउ बहुकुलीर पाइक्क भयंकरु चवल-लहरि परिफंसिय सरहरु दस-दिसि सीमंतिणीउ रमंतउ उच्छलंत मच्छा सिलयालउ खय समयाणिल परिपेल्लिय जलु णाणा रयणाहरण-धरंतउ गिरिवर-सिहर रेल्लंतउ घडहडंतु मज्जाय-विमुक्कउ
मयर महंत मयंगम वंतउ।। धवल फेण छत्तावलि छाइउ।। कूलमहापडिकूल खयंकरु।। बोडिय सरि-सर-सधर-धराहरु।। कठिण कुम्म वसु णंदयवंत।। विविह भवण णिसियासि करालउ।। खयर-सुरासुर-णर दूसहु बलु ।। कंदर-विवर-दरीउ-भरंतउ।। णीसेसुवि णहयलु लंघतउ।। जलणिहि-रूवेणं जमु दुक्कउ।।
घत्ता- एरिसु वि समुदु सुदुत्तरणु तव-तेय-विहंसिय संचरणु।
भत्तिए भवियण विरइय कमल पक्खालइ जिणवर कम-कमलु ।। 127 ||
असुराधिपति ने (अपनी विक्रिया-ऋद्धि से) अत्यन्त चपल-कल्लोलों वाले, रौद्ररूपधारी, चतुरंगबल से सुशोभित सेना के समान समुद्र का स्मरण किया और वह भी वहाँ तत्काल उपस्थित हो गया
जो समुद्र उत्तुंग तरंग रूपी घोड़ों से युक्त, महान् मगर रूपी मातंगों से युक्त, घडियाल (हारोहर) रूपी रथों वाला, और धवल फेन रूपी छत्रावली से आच्छादित था। वह कुलीर (केंकड़े) रूपी पदाति सेना (पाइक्क) से भयकारी, धरती के दोनों तटों के लिये क्षयकारी, चंचल लहरों से स्वर्ग (आकाश) तल को छूता हुआ, नदियों, सरोवरों, निर्झरों, एवं पर्वतों को अपने में निमग्न करता हआ, दस-दिशा रूपी सीमन्तिनियों के साथ रमण करता हुआ, कठिन कच्छप रूपी अष्ट नन्दकों (शस्त्रों) का प्रवर्तन करता हुआ, उछलते हुए मच्छ रूपी कटारों वाले, विविध भंवर (आवर्ती) रूपी भयंकर तीक्ष्ण तलवारों से व्याप्त, प्रलयकालीन वायु के समान वायु से जल को ढकेलता हुआ, विद्याधरों, सुरों, असुरों एवं नरेन्द्रों के लिये दुस्सह बल वाला, नाना प्रकार के रत्न रूपी आभरणों को धारण किये हुए, कन्दराओं, विवरों एवं दरों को भरता हुआ, गिरिवरों के शिखरों को रेलता हुआ, समस्त आकाश का उल्लंघन करता हुआ, घडघडाते हुए मर्यादाओं का उल्लंघन करता हुआ वह समुद्र, ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों यमराज ही आकर वहाँ उपस्थित हो गया है।
घत्ता- किन्तु ऐसा दुस्तर समुद्र भी पार्श्व के तपस्तेज से विध्वस्त होकर संचार-हीन हो गया और जिस प्रकार
भव्यजन भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र के चरण-कमलों का प्रक्षालन करते हैं, उसी प्रकार वह समुद्र भी उनके चरणों का प्रक्षालन करने लगा। (127)
150 :: पासणाहचरिउ