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कावि ससज्झ सवेविर विग्गह कहइ कणय केऊर परिग्गह।। जा जीवेस ण जीविउ णिग्गइ जा ण कयंतु अखत्ते लग्गइ।।
ता णियमणु रइकीलणे पेरहि मा णिद्गुरु होएवि अवहेरहि।। घत्ता— सुर-असुरहिँ जेहिँ णिरिक्खियइँ तहु रूवइँ मयण सवक्खियइँ।
णिय माणसि तेहिँ विसूरियइँ पुणु-पुणु णिय तणु मुसुमूरियइँ ।। 125 ।।
7/12 When the beautiful angels failed to disturb Pārswa, the wicked demon tries unsuccessfully to create obstructions through the God of Fire (Agnideva). वत्थु-छन्द- किं सुरत्तेण अम्ह दुक्खाण लक्खाण।
मणे वित्थरेण जहिँ ण चित्त संतावहम्महिँ। एयाउ पीवर थणिउ महरवाणि अणवरउ रम्महि।। डज्झउ सो देवत्तणु वि जहि जायइ मण-सोउ।
वरि भवे-भवे अम्हहँ हवउ हयमणदुहु णर लोउ।। छ।। सुर-कामिणिहिँ ण चालिउ जाविहें ज्झाणहि पासजिणेसरु ताविहें।। सिर-सेहरु किरणावलिभासुरु
आउलमणु चिंतइ कमठासुरु।।
उद्वेलित कर (घेराकार बनाकर) हार-सहित मेरे महारतिजनक स्तन-युगलों को चाँपकर कण्ठ का आलिंगन क्यों नहीं कर रहे हो ? स्वर्णनिर्मित केयूर धारण किये हुए, कोई-कोई अप्सरा अत्यन्त संकोचशील तथा कम्पित विग्रह (शरीर) से कह रही थी कि-हे जीवेश, जब तक प्राण नहीं निकल जाते और जब तक कृतान्त नहीं आ जाता, तब तक तुम अपने मन को रति-कीड़ा में प्रेरित करते रहो, निष्ठुर बनकर मेरा तिरस्कार मत करो। घत्ता– जिन देवों एवं असुरों ने मदन से सापेक्ष तुम्हारे रूप को देखा है, अपने-अपने मन में वे भी झूरते रहे और अपना शरीर पुनः पुनः खोते रहे। (125)
7/12 जब रूपस्विनी अप्सराएँ भी पार्व को ध्यान से विचलित न कर सर्की, तब वह दुष्ट
कमठासुर अग्निदेव के द्वारा उपसर्ग कराने का असफल प्रयत्न करता हैवस्तु छन्द- हमारे लिये ऐसे देवत्व से क्या लाभ, जिसने हमारे लिए लाखों दुख उत्पन्न किये हों ? ऐसे देवत्व
से भी हमें क्या लाभ, जो हमारे चित्त के सन्ताप तक को नहीं मिटा सकते? कहाँ तो हमारे ये पीवरस्तन, कहाँ हमारी मधुर वाणी और कहाँ हमारी यह रम्य-चारुता की निरन्तरता ? खाक हो जाय हमारा यह देवत्व, जहाँ मन केवल शोकाकुल ही बना रहता है। बल्कि, जन्म-जन्म में हमें मन के
दुखों को नष्ट करने वाला यही मनुष्य-लोक प्राप्त हो, (यही हमारी मनोकामना है)। ध्यान स्थित पार्श्व जिनेश्वर जब अप्सराओं के द्वारा भी चलायमान न किये जा सके, तब मुकुट की किरणों से भास्वर मस्तक वाले उस कमठासुर ने व्याकुल मन से अग्निदेव का स्मरण किया। अतः वह भी पवन के समान ही वहाँ आ पहुँचा। आते ही उसने क्षयकालीन सूर्य के समान समस्त जल को सुखा डाला, जहाँ-तहाँ वडवानल
148:: पासणाहचरिउ