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छुडु असुरिंदहो करयल वियलिय ता होएवि तरुङमव मालउ विडिय पास सिरोवरि सुंदर जा जिणु तवसिरिणिलउ ण मारित ता असुरेण विणिम्मिय रइहर णाय-णरामर माणस हरणउ मोहिय विज्जाहर वर संघउ मयरद्धउ कय ताव णिसुभउ वियलिय-रइ मुणिमण रमणीयउ तणुपरिमलविणिहय मयणाहिय णिय लावण्ण णिहय रइ राहउ वियलिय घण छण ससहर वयणिउ तणु जुइ जिय णवकंचण-कमलउ दुगुणिय सत्ता हरणालंकिया
पहरणमत्त सिलीमुह सवलिय।। पिंजर पवर पराय रमालउ।। णिय परिमल परिवासिय कंदर।। णिसियाणण पहरणहिँ ण दारिउ।। पवरच्छर पीणुण्णय थणहर ।। रत्तुप्पल समाण वरचरणउ।। मणसिय-तोण-सरिससुह-जंघउ।। उरु-सिरि-जिय कयली-खंभउ।। पिहुलुण्णय णिम्मल रमणीयउ।। सुरसरिजलविद्यमम सुह-णाहिय ।। जाइ कुसुममाला सम वाहउ।। णवणीलुप्पलचलदल णयणिउ।। भुअ सिहरोवरि ठिअ सुइ जुअलउ।। विउल-माल तिलएण समंकिया।
घत्तामयमत्त-मऊर-कलावसम चंचलयर-कंतल रमण-खमा।
जिणपुरउ दवत्ति समोवडिया णं बहुभेयहँ रइविहि घडिया।। 124 ||
उस असुरेन्द्र मेघमाली के हाथ से छूटते ही वे समस्त प्रहरण तत्काल ही मदोन्मत्त मँडराते हुए भ्रमरों से युक्त, प्रवर पराग से व्याप्त वृक्षोद्भव-पुष्पों की सुगन्धित सुन्दर मालाएँ बन गए। अपनी परिमल से पर्वत कन्दराओं को भी सुगन्धित करती हुई वे मालाएँ पार्श्व मुनीन्द्र के सिर एवं कण्ठ में आ गिरी। इस प्रकार जब तीक्ष्ण प्रहरणशस्त्र भी उन तपश्री के निलय स्वरूप पार्श्व-जिन को विदीर्ण कर उन्हें न मार सके, तब उस (असुर) ने अपनी विक्रिया-ऋद्धि से पीनोन्नत स्तनों वाली, रति के गृह के समान ऐसी उत्तम अप्सराओं का निर्माण किया, जो नागों, नरों एवं अमरों के मानस को चुराने वाली, रक्तोत्पल के समान उत्तम चरणों वाली, विद्याधरों को भी मोहने वाली, कामदेव की तूणीर के समान सुखद, सुन्दर जंघाओं वाली, मकरध्वज के काम-सन्ताप को मिटाने वाली, कदली के खंभों को भी मात देने वाली, पिंडलियों की शोभा वाली, रति रहित मुनिजनों के मन को भी रमणीक, पृथुल (सुघर-मोटी) उन्नत, निर्मल, रमणीक, शरीर की सुगन्धि से कस्तूरी को भी नीचा दिखाने वाली, गंगा नदी के जलावत के समान सुन्दर नाभि वाली, अपने लावण्य के सौन्दर्य से रति एवं राधा को भी मन्द कर देने वाली, जाति-पुष्पों की माला के समान कोमल बाहुओं वाली, मेघ रहित पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाली, नवीन नीलोत्पल के चंचल-दल के समान नेत्रों वाली, अपने तन की धुति से नव स्वर्णाभ कमलों की शोभा को भी जीतने वाली, भुज-शिखर के ऊपर स्थित कर्णयुगल वाली, चौदह प्रकार के आभरणों से अलंकृत और तिलक द्वारा समलंकृत विशाल ललाट वाली
घत्ता– मदोन्मत्त मयूर की पूँछ के समान चंचलतर कुन्तलों वाली, रमण-कार्य में सक्षम, वे अप्सराएँ तत्काल
ही उन जिनेन्द्र पार्श्व के सम्मुख उपस्थित हो गयी, मानों विधि ने रति को अनेक भेदों (रूपों) में घड़ दिया हो। (124)
146:: पासणाहचरिउ