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तिविह भुवणम्मि जायंति उव्विट्ठ ।। रयम्मि विसहंति दुक्खाण लक्खाइँ । गच्छंति सयखंडु होउ विलक्खाइँ ।। जिणणाह पयभत्तु सुरराउ रूसेवि । विज्जाबल ताहँ सहसत्ति दूसेवि ।। सिरकमल उवरम्मि पाडेइ महवज्जु । उवसग्गु णिरसेवि चिंतवइ णियकज्जु || इयमुणिवि उवसग्गु विसहरु व परिहरहि । सिरिपास जिणणाह चरणाइँ अणुसरहि । । मा तुज्झु भुअसत्ति विहडेवि विल्हसइ जाउ । मा भमउ दुज्जसु तिलोयम्मि जह वाउ ।। मा उज्झु अहिमाण मह जायवेण । मा भज्ज विज्जा महावाय वेएण ।। मा खज्ज चिर वइर महणायराएण |
मा णिज्ज यिमंदिरं पेयराएण ।।
जाहि हिँ हँ ण सुरराउ ।
गय राय उवसग्गयर जलयक्खयवाउ ।।
घत्ता- तं भासिवि णिसुसिवि उल्ललिउ घयसित्तु हुयास व पज्जलिउ ।
कोहाणलेण अप्पर खवइ तहिँ अवसरि मेघमालि लवइ ।। 120 || - (मयणावयार-छंद)
करते हैं और नरक में जाकर लाखों प्रकार के दुख सहते हैं। वहाँ उनके शरीर को सैंकड़ों टुकड़ों में खण्डित किये जाने से वे बिलखते रहते हैं। जिननाथ के चरणों के भक्त सुरेन्द्र भी उस असुराधिपति से रुष्ट होकर सहसा ही उसके विद्याबल को दूषित कर देता है और वह उसके सिर कमल पर महाबज्र पटक देता है। अतः उपसर्ग दूर कर आत्महित के चिन्तन का कार्य कर और उचित समझकर विषधर के समान उपसर्ग करना छोड़कर श्री पार्श्व जिननाथ के चरणों का अनुसरण कर ।
तू अपना भुजबल व्यर्थ में नष्ट करके प्रसन्न मत बन तेरा दुर्यश तीनों लोगों में कहीं वायु के समान न फैल जाय, अभिमान की महाग्नि में अपने को मत जला, प्रलयकालीन वायु के वेग से अपनी विद्या को भग्न मत कर, पूर्वजन्मकृत बैर से अपने को खण्डित मत कर, (पूर्वजन्म के) प्रेत- राग से अपने मन्दिर (विमान) को निन्द्य मत बना | जल्दी से वहाँ भाग जा, जहाँ सुरेन्द्र भी पता न लगा सके। क्योंकि वह (सुरेन्द्र ) किसी भी वीतरागी पर उपसर्ग करने वाले को उसी प्रकार उड़ा कर ले जाता है, जिस प्रकार क्षयकालीन वायु मेघों को उड़ाकर ले जाती है।
घत्ता - सौमनस यक्ष का कथन सुनकर वह असुराधिपति उसी प्रकार तमक पड़ा, जिस प्रकार घृत सिक्त अग्नि प्रज्वलित हो उठती है । क्रोधाग्नि से उसने अपने को जला डाला और उसी समय उस मेघमाली (कमठ) ने चिल्लाकर कहा— (120) - ( मदनावतार - छन्द)
पासणाहचरिउ :: 141